आदमी वहशी जानवर नहीं है ...
हमारे अन्दर करुणा है दया है
पीड़ा है ,माया है ,मोह है
संवेदना है ,भाव हैं , न्याय है
एक दुलारी सी -जी जान से प्यारी
संस्कृति है -माँ है
हम गौरव हैं अपनी माँ के
नाजुक पल थोड़ी संवेदना
दिल को झकझोर जाती हैं
आँखें नम कर
रुला देती हैं
साँसे बढ़ जाती हैं
आवाज रुंध जाती है
पल भर किंकर्तव्य विमूढ़ हो
हाथ में लाठी रुक जाती है
मारें या छोड़ें इसे
ये भी एक जीव है
भले ही इसने अपनों को
बार बार डंसा है
दफनाया हूँ रोया हूँ
अपना सब कुछ खोया हूँ
आज तक झेलता ही आया हूँ
कल फिर काटेगा
हम को हमसे ही बांटेगा
राज करेगा हम पर
हंसेगा ठहाका लगाएगा
खुद को खुदा -भगवान
मसीहा कहेगा
हमे छलेगा
इज्जत लुटेगी
जीते जागते
हम मर जायेंगे
सम्मान घटेगा
मष्तिष्क जागता है
और तब सीने पर बड़ा पत्थर
हमारी करुना दया को
निर्णय ले दबाता है
आँखों पर पट्टी बाँध देता है
और लाठी ,भला,बरछी
हमारी भी चल जाती है
फिर हम "अबोध" लोग
रोते हैं एक अपना ही खोते हैं
उसे सम्मान से
दफ़न कर देते हैं
शुक्ल भ्रमर ५
७.२६-७.५८ पूर्वाह्न
यच पी ४.११.२०११
दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं
गहरी संवेदना लिए कविता ..... बहुत बढ़िया
ReplyDeleteडॉ मोनिका शर्मा जी बहुत बहुत आभार आप का मानवीय गुणों को आप ने बढावा दिया प्रशंसा किया ..लिखना सार्थक रहा
ReplyDeleteभ्रमर ५
सच जब तक आदमी के अन्दर इंसानियत है तब तक ही वह इंसान बना रह पाता है .....जन्म से आदमी बहशी जानवर तो नहीं होता लेकिन जब बन जाता है तो फिर इंसान होने के भ्रम में जीवन ढ़ोता रहता है....
ReplyDeleteबढ़िया सार्थक चिंतन.
बहुत सुन्दर कहा आप ने कविता जी ..काश आप की बातों पर लोग गौर करें ...अपना बोझ न धोएं जीवन पर्यंत ...
ReplyDeleteआभार आप का
भ्रमर ५
आपके पोस्ट पर आना सार्थक लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । सादर।
ReplyDeleteakraktale के द्वारा November 9, 2011
ReplyDeleteआदरणीय सुरेन्द्र जी नमस्कार,
आपने अब पूरी तरह आदमी का चेहरा बे नकाब किया है. इससे पूर्व अबोध जी सिर्फ रा वन का सिर्फ ऊपर का मुख देख कर उसे ही आदमी का असली चेहरा बता रहे थे किन्तु आपने अब अन्य नौ चहरे भी दिखाए हैं.किन्तु मै उन्हें भी गलत नहीं मानता क्योंकि एक नजर में सर्व प्रथम आदमी का वाही चेहरा सामने नजर आता है. मगर पूरी हकीकत आपने अपनी चिर परिचित शैली में लिखी है धन्यवाद.
surendr shukl bhramar5 के द्वारा November 9, 2011
प्रिय अशोक जी बहुत बहुत आभार आप का गलत कोई नहीं है एक ही चीज के एक ही सिक्के के दो पहलु होते हैं बड़ी ख़ुशी हुयी आप ने हमारी और अबोध जी की रचना को बहुत ही सुन्दर ढंग से स्पष्ट किया सुन्दर समीक्षा आप की- उन्होंने जिस प्रसंग में कहा जो देखा लिखा -उस समय वही भाव आते हैं उस समय व्यक्ति वही सोच जाता है -ऐसा ही होता है जज्बात तब जब कोई मारा जा रहा हो काटा जा रहा हो हम इतिहास न देखें तो ..
अपना स्नेह बनाये रखें …हम साधारण लोग आप से विद्वानों से सीख लेने के लिए हर पल लालायित हैं ..
भ्रमर ५
Santosh Kumar के द्वारा November 9, 2011
आदरणीय भ्रमर जी ,.सादर प्रणाम
मैं आदरणीय रमेश सर के उदगार चोरी ही कर लेता हूँ ,..
मनोभावो के इस कारुणिक अन्तर्द्वन्द को रेखांकित करना तभी संभव होता है जब खुद के भीतर
करुना की सहज धार हो | आपके अंतस में तो करुना का सागर ही भरा है |”…………..बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ..हार्दिक बधाई
surendr shukl bhramar5 के द्वारा November 9, 2011
प्रिय संतोष जी जब मन मिलते हैं -कुछ हमारे आप के गुण मिलते हैं तो हमारा एक दूसरे का कहा( वैसे ही जैसे चिड़िया चिड़िया की भाषा पर दौड़ आती है समझ लेती है दुःख दर्द ख़ुशी सब कुछ -) सब सहज ही समझ में आ जाता है मन भावुक हो जाता है कभी कभी तो आँखें भी भर आती हैं -
आप और बाजपेयी जी दोनों ही दिल से काफी भावुक और स्नेही लगे ..हम साधारण इंसान बस प्यार मोहब्बत दो पल का जीवन और है ही क्या ???
आभार
भ्रमर ५
Ramesh Bajpai के द्वारा November 9, 2011
प्रिय श्री शुक्ल जी मनोभावो के इस कारुणिक अन्तर्द्वन्द को रेखांकित करना तभी संभव होता है जब खुद के भीतर
करुना की सहज धार हो | आपके अंतस में तो करुना का सागर ही भरा है |
मै बाहर था , अब वापसी हुयी है | मिलना होता रहेगा | बधाई
surendr shukl bhramar5 के द्वारा November 9, 2011
प्रिय बाजपेयी जी अभिवादन वापसी पर आप का स्वागत है ये तो आप का बड़प्पन और जर्रा नवाजी है जो आप ने ये पुरस्कार बख्शा -बहुत सही कहा आपने और ये वही इंसान समझ सकता भी है जो करुना और वेदना को अन्तः से झाँका हो आप के उदगार हमारी धरोहर हैं और जीवन में और कुछ करते रहने में प्रेरणादायी है ..
अपना स्नेह बनाये रखें
रचना आप के मन को छू सकी लिखना सार्थक रहा
भ्रमर ५
sumandubey के द्वारा November 8, 2011
शुक्ल जी नमस्कार, मानव की सभी श्रेष्ठता को आपने श्ब्द दिये है पर आज ये संवेदनाये मर रही है। बड़E दूख के साथ ये कहना पड़ रहा है।
surendr shukl bhramar5 के द्वारा November 9, 2011
प्रिय सुमन दूबे जी अभिवादन बिलकुल सही आंकलन है आप के लेकिन किया ही क्या जाए उमीदों के सहारे जीना है और आशावान हो मानवीय गुणों को जीवित रखना है ..
आभार आप का
भ्रमर 5
nishamittal के द्वारा November 8, 2011
शुक्ल जी मानवीय मनोभावनाओं से परिपूर्ण बहुत भावों से परिपूर्ण रचना.
surendr shukl bhramar5 के द्वारा November 9, 2011
आदरणीया निशा जी इस रचना ने मानवीय भावनाओं को भावों गुणों को कुछ दर्शाया ..आप से सुन बड़ी ख़ुशी हुयी आभार
भ्रमर ५
Rajkamal Sharma के द्वारा November 8, 2011
आदरणीय भ्रमर जी …. सादर अभिवादन !
आपकी इस रचना में एक कमी है_JAGRAN JANCUTION FORUM
लेकिन खुशी तो इसी बात की है की आपकी इस चूक के बावजूद
यह ख़ाक अपने खमीर वाले असली स्थान पर पहुँच ही गई है …..
बहुत ही सुंदर तरीके से दर्दनाक मंजर का चरित्र चित्रण (मानसिक ) किया है आपने
मुबार्कबाद और मंगलकामनाये
न्ये साल तक आने वाले सभी त्योहारों की बधाई
http://rajkamal.jagranjunction.com/2011/11/05/“भ्राता-राजकमल-की-शादी”/
surendr shukl bhramar5 के द्वारा November 9, 2011
प्रिय राज भाई जय श्री राधे ..चलिए वो कमी आप सब और जागरण जंक्शन फोरम ने पूरा कर ही दिया ख़ुशी और बढ़ गयी जब सब आप सब की मर्जी से हो ..
इस रचना में दर्दनाक मंजर का चरित्र चित्रण (मानसिक ) हुआ आप से ये समीक्षा सुन और ख़ुशी हुयी ..
सच में इंसान हैवान और जानवर तो कतई नहीं है न …
अपना स्नेह बनाये रखें
भ्रमर ५
alkargupta1 के द्वारा November 8, 2011
ReplyDeleteशुक्ला जी , आदमी की अन्तर्दशा का करूणामय सजीव चित्रण किया है
श्रेष्ठ कृति के लिए बधाई !
surendra shukla bhramar5 के द्वारा November 8, 2011
आदरणीया अलका जी अभिवादन और आभार आप का आप ने इस रचना के हालात और मानवीय गुणों को परखा समझा की क्यों कर ऐसा हो जाता है -श्रेष्ठ कृति लगी आप को सुन बहुत ही हर्ष हुआ
प्रोत्साहन यों ही बनाये रखें
भ्रमर ५
jlsingh के द्वारा November 8, 2011
भ्रमर जी, नमस्कार!
पहले तो मुझे भ्रम हुआ शीर्षक देखकर —-
पहले पढ़ा था — हम जानवर हैं, वहशी जानवर — अबोध बालक
फिर “आदमी वहशी जानवर नहीं है …”
लगा किसी ने ‘एडिट’ कर दिया…..
लेकिन आपने उनका ‘मान’ रखते हुए लिखा — आँखों पर पट्टी बाँध देता है
और लाठी ,भाला ,बरछी
हमारी भी चल जाती है
फिर हम “अबोध” लोग
रोते हैं एक अपना ही खोते हैं
कितनी करुणा, व्यथा, सहृदयता छिपी है इन पंक्तियों के पीछे छिपे हुए मानस में.
सादर नमन! – जवाहर.
surendra shukla bhramar5 के द्वारा November 8, 2011
प्रिय जवाहर जी एडिट तो नहीं किया हमने कभी किसी का लेकिन आप ने उसे जोड़ा बिलकुल सही जगह से-अबोध जी प्रेरणा स्रोत तो बने ही तो मान रखना ही था …है की नहीं ?? -बहुत अच्छा लगा आप का स्पष्टीकरण व्याख्या और आप के समझने की ….
बहुत बहुत आभार आप ने इस के दर्द और मर्म को समझा की क्यों हम ऐसा कर जाते हैं ..
आभार
भ्रमर
shashibhushan1959 के द्वारा November 8, 2011
नर नहीं जानवर होता है, पर स्वाभिमान ना खोता है,
सुख-दुःख में स्थितप्रज्ञ रहे, सम्मान भुला दे वह अपना,
यह जीना भी क्या जीना है ?
जिसकी मर्जी जो भी कह दे, क्या इसीलिए जग में आये,
बेबस-दयनीय बने रहना, पुंसत्वहीन नर को भाये,
यह जीना भी क्या जीना है ?
हंसकर शिव जैसे गरल पिए, झंझावातों में कूद जाय,
जब स्वाभिमान पर बात अड़े, तो रक्तसरित में डूब जाय,
ऐसा जीना ही जीना है.
.
क्षमाप्रार्थना सहित………………
surendr shukl bhramar5 के द्वारा November 8, 2011
प्रिय शशिभूषण जी बहुत सुन्दर क्षमाप्रार्थी क्यों ..बहुत बढ़िया लिखा आप ने जो सच है वो सच हमेशा ..सुन्दर सीख देती रचना आप की ..
धन्यवाद आप का
naturecure के द्वारा November 8, 2011
आदरणीय शुक्ल जी
सादर प्रणाम
आदरणीय शशिभूषण जी की बात से मैं पूर्णतया सहमत हूँ |
प्रेम सरोवर जी रचना सार्थक लगी सुन हर्ष हुआ
ReplyDeleteआभार
भ्रमर ५
बहुत ही संवेदनशील विचार लिए है आपकी कविता, बहुत खूब!
ReplyDeleteप्रिय साहिल जी रचना पंसंद आई सुन मन को सुकून मिला लिखना सार्थक रहा
ReplyDeleteआभार
भ्रमर ५
संवेदनशील ह्रदय के उद्गार!
ReplyDeleteअनुपमा पाठक जी हार्दिक अभिवादन प्रोत्साहन के लिए ..इतनी दूर से आप सब का हिंदी से जुड़े रह इतना सब कुछ करना मन को छू जाता है ..बधाई
ReplyDeleteभ्रमर ५
भ्रमर का दर्द और दर्पण
बहुत बढ़िया लिखा है.
ReplyDelete