तुमने सोचा उड़ लेता हूं
ऊंचे ऊंचे हूं आकाश मेंr
ऊंचे उड़ते बहुत जीव हैं
सगे संबंधी हूं प्रकाश में
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नही जानते कुछ ऐसे भी
घात लगाए बस उड़ान में
जितना भी मजबूत घोंसला
घात लगाए सदा ताक में
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पंख का ऊपर नीचे होना
चारे का धरती पर होना
मत भूलो उड़ उड़ कर जीना
पल छिन का कमजोर खिलौना
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छापामार लड़ाई अब तो
फन में माहिर कई गोरिल्ला
शंख बजे ना नियम ताक पे
ना अंधियारा लाल न पीला
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उठा पटक बस टांग खींच ले
चित चाहे जैसे भी कर दो
लोग हजारों साथ हैं तेरे
जब चाहो तब दंगल जीतो
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सच्चाई भी दब जाती है
भीड़ की मार बहुत जालिम है
झूंठ चिढ़ाते मुंह घूमे फिर
शान्ति द्रौपदी की मानिंद है
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सुरेंद्र कुमार शुक्ल भ्रमर 5
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश
भारत।
सुंदर, सार्थक रचना !........
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