उग गया बोया गया या उड़ के आया
फूला अब तो फल रहा विषाणु बनकर
भोर को लूटा गया मिटते उजाले
खींचती है भींचती अब काल रात्रि है भयंकर
शिव हैं शव है औ मरुस्थल भस्म सारी
रोती आंखें आंधियां तू फां बवंडर
सांस अटकी थरथराते लोग सारे
रेत उड़ती फड़ फड़ाते पिंड पिंजर
गुल गुलिस्तां हैं हुए बेजान सारे
सूखती तुलसी पड़ी वीरान घर है खंडहर
ना भ्रमर हैं गूंजते ना फूल मुस्काते दिखे
मोड़ मुख हैं दूर सारे कौन कूदे इस कहर
दुधमुंहे जाते रहे हैं बूढ़ी आंखें थक चुकीं
बूढ़े कांधे टूटते अब कौन ढोए ये सितम
चार दिन की जिंद गानी कौन खोए
छू के शव को सोचते बीते प्रहर
खोद देते फेंक देते औंधे मुंह जज़्बात सारे
मर मिटीं संवेदनाएं क्रूर आया है प्रलय
शान्त हो मस्तिष्क को काबू रखो हे!
नाचो गाओ कर लो चाहे आज तांडव
मौन मत हो गा आे झूमो काल भैरव ही सही
दिल से छेड़ो तुम तराने साथ छोड़े ना हृदय
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर 5
प्रतापगढ़ , उत्तर प्रदेश, भारत 17.04.2021
सच्चाई को बयां करती उत्कृष्ट रचना ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आप का इस विभीषिका को चिन्हित करती रचना पर समर्थन हेतु जिज्ञासा जी, राधे राधे
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ReplyDeleteHey friend, it is very well written article, thank you for the valuable and useful information you provide in this post. Keep up the good work! FYI, please check these
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Dhruv