- हे री ! चंचल
जुल्फ है कारे मोती झरते
रतनारे मृगनयनी नैन
हंस नैन हैं गोरिया मेरे
'मोती ' पी पाते हैं चैन
आँखें बंद किये झरने मैं
पपीहा को बस 'स्वाति' चैन
लोल कपोल गाल ग्रीवा से
कँवल फिसलता नाभि मेह
पूरनमासी चाँद चांदनी
जुगनू मै ताकूँ दिन रैन
धूप सुनहरी इन्द्रधनुष तू
धरती नभ चहुँ दिशि में फ़ैल
मोह रही मायावी बन रति
कामदेव जिह्वा ना बैन
डोल रही मन 'मोरनी' बन के
'दीप' शिखा हिय काहे रैन
टिप-टप जल बूंदों की धारा
मस्तक हिम अम्बर जिमि हेम
क्रीडा रत बदली ज्यों नागिन
दामिनि हिय छलनी चित नैन
कम्पित अधर शहद मृदु बैन -
चरावत सचराचर दिन रैन
सात सुरों संग नृत्य भैरवी
तड़पावत क्यों भावत नैन ?
हे री ! चंचल शोख विषामृत
डूब रहा , ना पढ़ आवत तोरे नैन !
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर'५
11-11.48 P.M.
26.08.2013
कुल्लू हिमाचल
दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं
श्रृंगार रस से ओतप्रोत सुंदर कविता ! आ. भ्रमर जी.
ReplyDeleteनई पोस्ट : बदलता तकनीक और हम
प्रिय राजीव भाई प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteभ्रमर ५
आदरणीय डॉ मोनिका जी ये श्रृंगार रस की कविता आप के मन को छू सकी ख़ुशी हुयी प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteभ्रमर ५
आदरणीय डॉ मोनिका जी ये श्रृंगार रस की कविता आप के मन को छू सकी ख़ुशी हुयी प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteभ्रमर ५
सुन्दर कविता .
ReplyDeleteप्रिय निहार जी ..ये श्रृंगार रस भरी रचना आप के मन को छू सकी और आप ने सराहा बड़ी ख़ुशी हुयी
ReplyDeleteआभार
भ्रमर ५