प्रिय मित्रों प्रेमी -प्रेमिका दिवस मुबारक हो , आप सब के प्रेम की बगिया में हरियाली खुशहाली भरी रहे गुल गुलशन खुश्बू से भरपूर हो बुलबुल और अपनी अपनी कोयलें चहकती रहें पवित्र प्रेम दिल में बसा सदा के लिए छाया रहे जो चोली और दामन का साथ कहलाये …..
आइये समाज में समता लायें विषमता भगाएं प्रेम कोई बंटने बांटने की चीज नहीं नैसर्गिक असली प्रेम हो सब का हो प्रेम के अनेकों रंग सब अपनी अपनी जगह विराजमान रहें सब खुश और मस्त रहें …
आइये समाज में समता लायें विषमता भगाएं प्रेम कोई बंटने बांटने की चीज नहीं नैसर्गिक असली प्रेम हो सब का हो प्रेम के अनेकों रंग सब अपनी अपनी जगह विराजमान रहें सब खुश और मस्त रहें …
जय श्री राधे
कुलक्षनी
—————-
कौन सा समाज ?
नीति नियम आज?
अन्धविश्वास-धर्म -कानून
सब इंसानों के बनाये
चोंचले हैं झूठ का पुलिंदा
वे ताकतवर हैं
उनकी बेटी भाग गयी –आई-
महीने भर बाद
धूमधाम से शादी रचाई
सब है आबाद !
माडर्न है पशिचम का पुतला
नेता धर्म के समाज के
पंडित पुरोहित आये -खाए
जश्न मनाये -हँस हँस बतियाये
कमर में हाथ डाले नाचे झूमे गाये
ठुमके लगाए …
क्या राम रामायण ?
कौन सीता ?
न धोबी न रामराज्य
ना कोई अग्नि परीक्षा
चेहरे होंठों पे लाली लगाए
लालिमा समेटे
बेटी अब “लाल” हो गयी है
———————————-
बुधुवा की बेटी का
बचपन के साथी से
प्यार -पवित्र प्रेम हो गया
दूरी बढ़ गयी है -नजरें झुकाए
दूर से हंसती बतियाती है
सखियों के साथ
कभी उस और चली जाती है
पनघट -फुलवारी में
धुंधलके से पहले
डरती-हांफती -घर दौड़ी चली आती है
माँ की छाती से लिपट जाती है
धर्म के ठेकेदार -कानूनची
सह न पाए —
पगलाए -बौराए -पञ्च बुलाये
अनर्थ हो गया -धर्म भ्रष्ट हो गया
हमारे रीति रिवाज
प्रथा परंपरा
संस्कृति का नाश हो गया
नैतिक मूल्यों का ह्रास हो गया
लकड़ी जला माथे पे दागे
अब वो “कुलक्षणी ”
बिटिया इस समाज का दाग
कलंक- “काल” हो गयी है
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कौन सा समाज ?
नीति नियम आज?
अन्धविश्वास-धर्म -कानून
सब इंसानों के बनाये
चोंचले हैं झूठ का पुलिंदा
वे ताकतवर हैं
उनकी बेटी भाग गयी –आई-
महीने भर बाद
धूमधाम से शादी रचाई
सब है आबाद !
माडर्न है पशिचम का पुतला
नेता धर्म के समाज के
पंडित पुरोहित आये -खाए
जश्न मनाये -हँस हँस बतियाये
कमर में हाथ डाले नाचे झूमे गाये
ठुमके लगाए …
क्या राम रामायण ?
कौन सीता ?
न धोबी न रामराज्य
ना कोई अग्नि परीक्षा
चेहरे होंठों पे लाली लगाए
लालिमा समेटे
बेटी अब “लाल” हो गयी है
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बुधुवा की बेटी का
बचपन के साथी से
प्यार -पवित्र प्रेम हो गया
दूरी बढ़ गयी है -नजरें झुकाए
दूर से हंसती बतियाती है
सखियों के साथ
कभी उस और चली जाती है
पनघट -फुलवारी में
धुंधलके से पहले
डरती-हांफती -घर दौड़ी चली आती है
माँ की छाती से लिपट जाती है
धर्म के ठेकेदार -कानूनची
सह न पाए —
पगलाए -बौराए -पञ्च बुलाये
अनर्थ हो गया -धर्म भ्रष्ट हो गया
हमारे रीति रिवाज
प्रथा परंपरा
संस्कृति का नाश हो गया
नैतिक मूल्यों का ह्रास हो गया
लकड़ी जला माथे पे दागे
अब वो “कुलक्षणी ”
बिटिया इस समाज का दाग
कलंक- “काल” हो गयी है
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सुरेन्द्र शुक्ल भ्रमर ५
४.०५-४.३३ पूर्वाह्न
१३.२.१२ कुल्लू यच पी
४.०५-४.३३ पूर्वाह्न
१३.२.१२ कुल्लू यच पी
दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं
वाह वाह वाह कुछ कहने को बाकी न छोड़ा। लेखक और कवि ही समाज की विद्रूपता और विक्रुती को ऐसे शब्दो मे सामने ला सकता है।
ReplyDeleteसही और सटीक रचना..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
प्रेम दिवस और यथार्थ के विरोधाभास को कितना सचीक जताया है ।
ReplyDeleteभ्रमर जी,.बेहतरीन यथार्थ को चित्रण करती सुंदर रचना,बहुत अच्छी प्रस्तुति,
ReplyDeleteMY NEW POST ...कामयाबी...
आदरणीय अरुणेश दवे जी , आदरणीया माहेश्वरी जी,आशा जोगलेकर जी , आदरणीय शास्त्री जी ,और धीरेन्द्र जी अभिवादन और आभार आप सब का रचना पर आप सब का समर्थन मिला ..रचना आप के मन को छू सकी सुन हर्ष हुआ लिखना सार्थक रहा
ReplyDeleteआइये हम लेखक और कवि अपना धर्म निभाते समाज की विद्रूपताओं को सामने लाते रहें
आभार
जय श्री राधे
भ्रमर५
आदरणीय अरुणेश दवे जी , आदरणीया माहेश्वरी जी,आशा जोगलेकर जी , आदरणीय शास्त्री जी ,और धीरेन्द्र जी अभिवादन और आभार आप सब का रचना पर आप सब का समर्थन मिला ..रचना आप के मन को छू सकी सुन हर्ष हुआ लिखना सार्थक रहा
ReplyDeleteआइये हम लेखक और कवि अपना धर्म निभाते समाज की विद्रूपताओं को सामने लाते रहें
आभार
जय श्री राधे
भ्रमर५