ऊंचे
नीचे टेढ़े -मेढ़े
नागिन
जैसे रस्ते हैं
गहरी
खांई गिरते पत्थर
बड़े
भयावह दिखते हैं
चढ़ते
जाओ बढ़ते जाओ
सांय
सांय हो कानों में
कुछ
को धड़कन चक्कर
कुछ को
अजब
गजब मन राहों में
कभी
अँधेरा कभी उजाला
बादल
बहुत डराते हैं
सौ
सौ रूप धरे ये बादल
मन
खुश भी कर जाते
हैं
हरियाली
है फूल खिले हैं
देवदार
अरु चीड़ बड़े हैं
मखमल
सी चादर ओढ़े ये
बड़े
बड़े गिरिराज खड़े हैं
पत्थर
कह दो रो पड़ते
ये
झरने
दूध की नदी बही
है
फूल-फूल फल -फल देते ये
कहीं
-कहीं पर आग लगी
है
जैसी
रही भावना जिसकी
वो
वैसा कुछ देख रहा है
सपने-अपने अपने -सपने
दुःख
-सुख सारा झेल रहा है
गहनों
से गृह लटके हैं
रंग-विरंगी कला-कृति है
अनुपम
मन-हर दिखते हैं
कहीं
खजाना धनी बहुत हैं
बड़ी
गरीबी दिखती है
चोर
-उचक्के सौ सौ धंधे
मेहनतकश
प्यारे बसते हैं
हांफ
-हांफ कर करें चढ़ाई
हँस
बोलें कुछ प्रेम भरे
कुछ
पश्चिम की कला में
ऐंठे
सज-धज उड़ते राह
दिखें
कुछ
नारी भारत सी प्यारी
संस्कार
छवि बड़ी निराली
कुछ
सोने जंजीरों जकड़ी
उच्छृखंल
मन गिरती जातीं
ग्रीष्म
ऋतु में सावन भादों
तन-मन बड़ा प्रफुल्लित
लगता
लगता
स्वर्ग है यहीं बसा-
आ
नगरी
देव की मन रम
जाता
गहरी
घाटी खेल -खिलौने
छोटे-छोटे घर दिखते
अद्भुत
छवि है धुंध भरी
है
तारों
विच ज्यों हम बसते
संध्या
वेला बादल संग हम
तारे
-बादल सब उतरें
रोम-रोम कम्पित हर्षित कर
नए
नज़ारे दिल भरते
नयी
ऊर्जा नयी ताजगी
लक्ष्य
नया फिर जोश बढे
लक्ष्य
लिए कुछ आये जग में
आओ
-हिल-मिल कर्म करें
शीतल
से शीतलता बढ़ती
अब
बर्फीली हवा चली
कल
सफ़ेद चादर ओढ़े ये -
'वादी'
-दुल्हन वर्फ सजी
यूं
लगता ‘कैलाश’- सरोवर
मान
बढ़ाता शिव नगरी
प्रकृति
नटी माँ पार्वती आ
वरद
हस्त ले यहां खड़ी
रुई
के फाहे झर-झर झरते
यौवन-
मन है खेल रहा
हिम-आच्छादित गिरि-कानन में
आज
नया रंग रूप धरा
आओ
प्रभु का धन्य मनाएं
'मानव
' हैं हम -हम इतरायें
मेल-जोल से हाथ धरे
हम
बड़ी
चढ़ाई चढ़ दिखलायें
सुरेंद्र
कुमार शुक्ल भ्र्मर ५
शिमला
३.१० -४.०६ शुक्रवार
कवीर जयंती
९
जून २०१७
दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं
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दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं
अभिनन्दन आप का ,हिंदी बनाने का उपकरण ऊपर लगा हुआ है -आप की प्रतिक्रियाएं हमें ऊर्जा देती हैं -शुक्ल भ्रमर ५