भारत प्यारा वतन हमारा सबसे सुन्दर न्यारा देश
इतनी भाषा जाति धर्म सब भाई-भाई हम सब एक
भरे उमंगें भरे ऊर्जा लिए तिरंगा हम सब दौड़ें
स्वस्थ बड़ी प्रतियोगिता हमारी एक-एक हम नभ को छू लें
ऐसा प्यार कहाँ जग में है पत्थर गढ़ते देव सा पूजें
मेहमानों को देव मानते मात-पिता गुरु चरणों पड़ते
भौतिक सुख लालच ईर्ष्या से दूर-दूर हम सब रहते
आत्म और परमात्म मिलन कर अनुपम सुख भोगा
करते
शावक से हम सिंह बने बलशाली वीर दहाड़ चलें
कदम ताल जय हिंद घोष कर पर्वत चढ़ नभ उड़ जाते
थल की सीमा मुट्ठी में है जल को बाँध विजय पथ जाते
आँख कोई दुश्मन दिखला दे बन नृसिंह छाती चढ़ जाते
प्रेम शांति की भाषा अपनी 'माँ' पर जान निछावर है
हर पल हर क्षण नूतन रचते मौसम प्रकृति सुहावन है
पुष्प खिले कलियाँ मुस्काए हैं वसंत मन-भावन है
कोयल कूकें, नाच मोर का, हरियाली, नित सावन है !
मोक्ष-दायिनी गंगा मैया चार धाम हैं स्वर्ग हिमालय सभी यहीं
ऋषि -मुनि की है तपस्थली ये पूजित होती देव भूमि प्यारी नगरी
सूर्य तेज ले 'लाल' हमारे करें रौशनी चन्दा 'शीतल' उजियारा करती
देवी बिटिया जग-जननी सरल-धीर ये गुण संस्कृति निज पोषा करती
आओ 'हाथ' जोड़ संग चल दें सत्य-अहिंसा शस्त्र लिए
'बल' पाए जिससे ये जगती रोटी-कपडा-वस्त्र मिले
मिटे गरीबी हो खुशहाली पढ़ें लिखें जग-गुरु बनें
चेहरे पर मुस्कान खिली हो लिए तिरंगा (तीन लोक में ) विजय करें !
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर'५
७-७.४७ पूर्वाह्न
१५.८.२०१२
कुल्लू यच पी
ब्लागर -प्रतापगढ़ उ.प्र.
दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं
प्रिय धीरेन्द्र जी सच कहा आप ने वे तो कुर्बानी दे के हमें कुछ दे के ही गए हम भूल गए अब अपना कर्म ही बचाए काश लोग सोचें कुछ धनात्मक रुख लें
ReplyDeleteभ्रमर ५