नेता जी एक दर्पण ले लो
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राजनीति भी अजब गजब है
काले लाल गुलाबी रंग
निशा अमावस्या ही भाती
वक्री चाल सदा बेढंग
जिस थाली में संग खाते थे
छेद किए कल चल गए
नेता जी एक दर्पण ले लो
बीच बीच में देखो रूप।
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धर्म ग्रंथ मन्दिर कल पूजे
बने बेहया बिसर गए
राम चरित मानस अमृत घट
राहु केतु अब जहर लगे
नेता जी एक दर्पण ले लो
बीच बीच में देखो रूप।
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कोई आग धधकाए फिरता
घी कुछ उसमे छोड़ रहे
कुछ गरीब बन जाते आहुति
रोटी वे अपनी सेंक रहे
नेता जी एक दर्पण ले लो
बीच बीच में देखो रूप।
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बहती विकास की गंगा देखो
कीचड़ में वे लोट रहे
धूल झोंक सब की आंखों में
लूट खसोट ही मगन रहें
नेता जी एक दर्पण ले लो
बीच बीच में देखो रूप।
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जल गई रस्सी ऐंठन वैसी
दाब लगे हो जाए चूर
उड़ोगे कब तक आसमान में
चारा धरती रखा हुजूर
नेता जी एक दर्पण ले लो
बीच बीच में देखो रूप।
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर 5
19.02.2023
उत्तर प्रदेश भारत।
सुंदर रचना।
ReplyDeleteबढ़िया व्यंग्य
ReplyDeleteवाह।
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत खूब...
आप अपना स्पैम चेक कीजिए
ReplyDeleteआपने आज प्रतिक्रिया नहीं दी तो
आईंदा आपकी रचना नहीं लाऊँगी
सादर