खेल- खेल मै खेल रहा हूँ 
कितने पौधे हमने पाले 
नन्ही मेरी क्यारी में 
सुंदर सी फुलवारी में !
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सूखी रूखी धरती मिटटी 
ढो ढो कर जल लाता हूँ
सींच सींच कर हरियाली ला 
खुश मै भी हो जाता हूँ !
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छोटे छोटे झूम झूम कर 
खेल खेल मन हर लेते 
बिन बोले भी पलक नैन में 
दिल में ये घर कर लेते !
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प्रेम छलकता इनसे पल-पल 
दर्द थकन हर-हर लेते 
अपनी भाव भंगिमा बदले 
चंद्र-कला सृज हंस देते !
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खिल-खिल खिलते हँसते -रोते
रोते-हँसते मृदुल गात ले 
विश्व रूप ज्यों मुख कान्हा के 
जीवन धन्य ये कर देते 
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इनके नैनों में जादू है 
प्यार भरे अमृत घट से हैं 
लगता जैसे लक्ष्मी -माया 
धन -कुबेर ईश्वर मुठ्ठी हैं
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कभी न ऊबे मन इनके संग 
घंटों खेलो बात करो 
अपनापन भरता हर अंग -अंग 
प्रेम श्रेष्ठ जग मान रखो 
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कभी प्रेम से कोई लेता 
इन पौधों को अपने पास 
ले जाता जब दूर देश में 
व्याकुल मन -न पाता पास !
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छलक उठे आंसू तब मेरे 
विरह व्यथा कुछ टीस उठे 
सपने मेरे जैसे उसके 
ज्ञान चक्षु खुल मीत बनें 
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फिर हँसता बढ़ता जाता मै 
कर्मक्षेत्र पगडण्डी में 
खेल-खेल मै खेल रहा हूँ 
नन्ही अपनी क्यारी में 
सुन्दर सी फुलवारी में !
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सुरेंद्र कुमार शुक्ल भ्र्मर ५ 
शिमला हिमाचल प्रदेश 
२.३० - ३.०५  मध्याह्न 
९ जून १७ शुक्रवार
दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं
Monday, June 26, 2017
खेल खेल मै खेल रहा हूँ
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Sunday, June 25, 2017
सौ -सौ रूप धरे ये बादल
ऊंचे
नीचे टेढ़े -मेढ़े 
नागिन
जैसे रस्ते हैं 
गहरी
खांई गिरते पत्थर 
बड़े
भयावह दिखते हैं     
चढ़ते
जाओ बढ़ते जाओ 
सांय
सांय हो कानों में
कुछ
को धड़कन  चक्कर
कुछ को
अजब
गजब मन राहों में
कभी
अँधेरा कभी उजाला 
बादल
बहुत डराते हैं 
सौ
सौ रूप धरे ये बादल 
मन
खुश भी कर जाते
हैं 
हरियाली
है फूल खिले हैं 
देवदार
अरु चीड़ बड़े हैं 
मखमल
सी चादर ओढ़े ये 
बड़े
बड़े गिरिराज खड़े हैं 
पत्थर
कह दो रो पड़ते
ये 
झरने
दूध की नदी बही
है 
फूल-फूल फल -फल देते ये
कहीं
-कहीं पर आग लगी
है 
जैसी
रही भावना जिसकी 
वो
वैसा कुछ देख रहा है 
सपने-अपने अपने -सपने 
दुःख
-सुख सारा झेल रहा है 
गहनों
से गृह लटके हैं 
रंग-विरंगी कला-कृति है 
अनुपम
मन-हर दिखते हैं
कहीं
खजाना धनी बहुत हैं 
बड़ी
गरीबी दिखती है 
चोर
-उचक्के सौ सौ धंधे
मेहनतकश
प्यारे बसते हैं
हांफ
-हांफ कर करें चढ़ाई
हँस
बोलें कुछ प्रेम भरे 
कुछ
पश्चिम की कला में
ऐंठे 
सज-धज उड़ते राह
दिखें 
कुछ
नारी भारत सी प्यारी 
संस्कार
छवि बड़ी निराली 
कुछ
सोने जंजीरों जकड़ी 
उच्छृखंल
मन गिरती जातीं
ग्रीष्म
ऋतु में सावन भादों 
तन-मन बड़ा प्रफुल्लित
लगता 
लगता
स्वर्ग है यहीं बसा-
आ 
नगरी
देव की मन रम
जाता 
गहरी
घाटी खेल -खिलौने 
छोटे-छोटे घर दिखते 
अद्भुत
छवि है धुंध भरी
है 
तारों
विच ज्यों हम बसते
संध्या
वेला बादल संग हम 
तारे
-बादल सब उतरें 
रोम-रोम कम्पित हर्षित कर 
नए
नज़ारे दिल भरते 
नयी
ऊर्जा नयी ताजगी 
लक्ष्य
नया फिर जोश बढे 
लक्ष्य
लिए कुछ आये जग में 
आओ
-हिल-मिल कर्म करें 
शीतल
से शीतलता बढ़ती 
अब
बर्फीली हवा चली 
कल
सफ़ेद चादर ओढ़े ये -
'वादी'
-दुल्हन वर्फ सजी 
यूं
लगता ‘कैलाश’- सरोवर 
मान
बढ़ाता शिव नगरी 
प्रकृति
नटी माँ पार्वती आ 
वरद
हस्त ले यहां खड़ी
रुई
के फाहे झर-झर झरते
यौवन-
मन है खेल रहा
हिम-आच्छादित गिरि-कानन में 
आज
नया रंग रूप धरा 
आओ
प्रभु का धन्य मनाएं
'मानव
' हैं हम -हम इतरायें 
मेल-जोल से हाथ धरे
हम 
बड़ी
चढ़ाई चढ़ दिखलायें 
सुरेंद्र
कुमार शुक्ल भ्र्मर ५ 
शिमला
३.१० -४.०६ शुक्रवार
कवीर जयंती 
९
जून २०१७
दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं
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