BHRAMAR KA DARD AUR DARPAN

Thursday, December 24, 2020

कांटे फूल सदा ही संगी


कांटे फूल सदा ही संगी
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मेरा मन भी भ्रमित बहुत है
गिरगिट जैसा रंग बदलता
स्वागत को जब फूल बहुत हैं
कैक्टस फूल उगाऊं कहता
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घर आंगन फुलवारी प्यारी
खुशियों से आह्लादित सारी
और लालसा की चाहत में
बढ़ता जाऊं कंटक पथ में
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सीधी सादी भोली भाली
' तुलसी आंगन की दिवाली
कौन लगा घुन मन में मेरे
ना भाए कुछ ' दर्द ' सिवा रे !
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बहुत लोग हैं मेरे जैसे 
खुशियों का जो दंश हैं झेले,
भांति भांति के कांटे चुनते
' कैक्टस  की दीवार बनाते
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सीमित साधन या हो मरूथल,
वीराने भी सजता कैक्टस,
धैर्य और साहस का परिचय,
कांटों फूल सजाता कैक्टस
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मेहनत कांटों की शैय्या चल,
प्यारे फूल हैं लगते मनहर,
जीवन की पगडंडी ऐसी,
कांटे - फूल सदा ही संगी
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बुरा नहीं कांटा भी यारों
कांटे से कांटे को निकालो
घर अंगना जो न मन भाए
सीमा पर आ बाड़ लगाएं
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर5
प्रतापगढ़,
उत्तर प्रदेश, भारत


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Friday, December 11, 2020

आओ कुछ मुस्का दें हम तुम


आओ कुछ मुस्का दें हम तुम
बंद होंठ कुछ कह जाएं
अनजाने ही सही मगर
इन नैनों से बतिया जाएं
जहां चलें हलचल दिल में हो
छाप छोड़ हम आ जाएं
देखो इन गुलाब फूलों को
कांटों संग भी खिल जाएं
पांवों में जंजीर हो जैसे
स्वागत को हिल डुल आएं
नित अच्छा करने की कोशिश
तन मन से हम जुट जाएं
जहां मिलें अच्छे, अच्छाई 
बढ़ें कदम, वर्तमान को गले लगाएं
चिड़िया चुग गई उस अतीत को
राग द्वेष सब माफ किए हे
 आओ प्यारे अब खिल जाएं

सुरेंद्र कुमार शुक्ल भ्रमर 5
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत

दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

कितना सुन्दर चमन हमारा


कितना सुन्दर चमन हमारा
स्वर्ग सरीखा जग में न्यारा
कौन प्रेम की छांव पला ना
पल पल दिल सुलगाते हैं 
शूली पर चढ़ जाते हैं ?

आस्तीन के सांप भरे हैं
दो मुहवे दिन रात छले हैं
गीदड़ से मौका जब पाते
हमला कर हैं जाति दिखाते
मां की आंखों में अंगारे भर
शूली फिर चढ़ जाते हैं

कितनी कोख उजाड़ दिए हैं
पोंछ दिए सिंदूर मांग से
कितनी राखी रक्षा टूटी
विलखें मां नित क्रूर काल से
देव - दनुज बन जाते कैसे
शूली क्यों चढ़ जाते हैं

मां की आंखों के आंसू से
सुन्दर धरा न ये बह जाए
मूर्ति गढ़ी जो प्रीति प्यार की
छिन्न भिन्न हो जल ना जाए
डर लगता है , आओ भाई !
लौट चलें हम नेक राह में
शूली चढ़ने से बच जाएं ।


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

आज खुशी है मन जो अपना


आज खुशी है मन जो अपना
सारा जग सुन्दर लगता
कल कल निनादिनी मां गंगा सी
हर मन तन पावन लगता
धौलागिरि सा उज्ज्वल शीतल
पूत पवित्र रम्य सब दिखता
कलरव करते उड़ते गाते मोहित करते
पंछी कुल ज्यों वीणा का हो तार खनकता
शरद पूर्णिमा धवल चांदनी दुल्हन जैसी
सपनों में हर पर लगता
भरे कुलांचे मन को जैसे पंख लगे हों
खिले पुष्प संग रास रचा भौंरा हंसता
प्रीति प्रिया सुवरण से सज्जित 
इन्द्रधनुष रंग, अंग - अंग गाता हंसता
सत्य सनेही मधु भर गागर बिखरी खुश्बू
 लो आनंद हर्ष से पी अमृत कविता
आओ खोजें प्रेम जोड़ लें हाथ मुक्त मन
झूमें नाचें देखें जानें प्रभु अपना हर हर बसता ।
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर5
1.11.2020

दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Wednesday, December 9, 2020

बुधिया रोए हाय किसानी

झर झर झरते आंख से आंसू
बुधिया रोए हाय किसानी....

छुट भैये कुछ नेता आए
डांट डपट कर उन्हें मनाए
हंडिया बर्तन खाली करके
मंगरू काका गठरी बांधे
ठंड ठिठुरते आंख में आंसू
छोड़ गांव घर बेमन भागे

झर झर झरते आंख से आंसू....

चार दिना आंदोलन ठानी
अमृत वर्षा सब  बेईमानी
लल्ली की थम गई पढ़ाई
बिन सींचे जल गई किसानी
साहूकार रोज घर झांके
गिद्ध सरीखा बैठे ताके
झर झर झरते आंख से आंसू....

भूसा जैसे भर ट्राली में
दो टुकड़े डाले थाली में
भालू बंदर और मदारी 
सर्कस खेल दिखाए रहे हैं
तम्बू और मशाल साथ लेे
चिंगारी भड़काय रहे हैं 
झर झर झरते आंख से आंसू....

बाराती से सज कुछ बैठे
काजू मेवा खाय रहे 
भोंपू माइक अख बा रन मा
फोटू रोज खिंचाइ रहे
वो दधीचि की हड्डी खातिर
खीस निपोर रिझाय रहे

झर झर झरते आंख से आंसू 
 बुधिया रोए हाय किसानी....

कुछ पाएं या छिन सब जाए
मेरे ' वो ' सकुशल घर आएं
मंगल सूत्र रहे गर मेरे 
दो गज माटी मिल ही जाए
प्रेम प्रीति सपने संग छौना
घास फूस का रहे बिछौना

झर झर झरते आंख से आंसू 
 बुधिया रोए हाय किसानी....

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर 5
प्रतापगढ़ , उत्तर प्रदेश
भारत


दे ऐसा मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Friday, August 7, 2020

दीप पुंज ले बढ़ते जाएं

आओ करें प्रकाशित जग को,
 दीप पुंज ले बढ़ते जाएं 
 शांत पवन या भले आंधियां 
 टूटे ना लौ जल जल जाए 
 कितना भी शातिर वो तम हो 
 लौ से तेरी बच ना पाए 
 अंधियारे को चीर नित्य ज्यों 
 सूरज सब को राह दिखाए 
 कितनी रातें काल सरीखी ग्रसें उसे 
 और सुनहरी किरण लिए जगमग हो आए 
 हों कोयले की खान चमकते हीरे जैसा 
 बड़े पारखी दौड़े आएं चुन ले जाएं 
 इस अथाह सागर में गुम ना खोएं यारों 
 मोती सा खुद चमकें जग को भी दमकाएं 
 कितने राहु केतु आए कारे बादल से छाए
 तेज पुंज में कहां ठहर वे पल भर पाए
 आओ हम भी जुगनू जैसे रहें चमकते 
 चीरें तम को सब मिल उजियारा फैलाएं 
  कहें भ्रमर कविराय आज तुम दीपक जैसे 
आंखों के तारे बन छाओ भानु सरीखे 
 सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर5 
देवरिया उ. प्र. 3.30-4.46 पूर्वाह्न 

 दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Saturday, August 1, 2020

फूल खिले हरियाली है


छिट पुट रंग बिरंगे बादल,
हवा बहुत मतवाली है
तरुवर से तांबे के सूरज
फूल खिले हरियाली है
कूके कोयल, कलरव अद्भुत
झूले अंबवा डाली है
बाग - बाग मन उड़े भ्रमर
मन खिला नटी संग प्यारी है



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

मन को छुआ


मन को छुआ
__________
एकाएक एक दिन
पारखी नजरों के आंकलन ने
मन को छुआ, देखा कुछ
अजीब सा होता हुआ
कोमलता कमतर हुई
हरियाली जाती रही
मुरझाना शुरू हुआ
अन्दर किया बाहर किया
सर्द गर्म हर मौसम - दिया
खाना - खुराक - दवा पानी
प्रेम प्यार स्नेहिल जज्बात
मुरझाता गया गात
मेहनत बेकार
झुंझलाहट चिड़चिड़ाहट बढ़ी
हर पल पगी - रही
देहरी पर खड़ी
तिस पर उलाहना
घूरती आंखों का
आस पास पड़ोस
शक्की जमाने का
पुरुषार्थ पर मेरे
स्नेह - निष्ठा
पालन पोषण पर मेरे
वज्राघात सहता - रोता
मन कचोटता - देता
और दवा पानी खाना खुराक
आंखें सूखीं भर आईं पथराईं
बरसीं छलकीं
और ' वो ' सब को देने वाला
दवा - जीवन - दान
आखिर मुरझा ही गया
प्यारा - तुलसी का पौधा
- -
सुरेन्द्र कुमार शुक्ला भ्रमर ५
१.०५-१.५२ भोर , शनि
देवरिया उ. प्र .




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

एक नज़र तिरछे नैनन से


सुबह सवेरे
मन बगियन मा
झर झर फूल
खिलाय गयीं

एक नज़र
तिरछे नैनन से
लिख पतियां
हर्षाय गयीं

ठौर ठांव ना
हिय की कैसे
इन नैनन की
उन तक मै पहुंचाऊं

हृदय पुष्प में
भ्रमर फंसा अब
अंतः सुख उनको भी शायद
समझूं मन समझाऊं



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

दर्द सुनामी बन जब आता शांत सुशांत कहां टिक पाता


कुंठा बन अवसाद लीलती
__________________
दर्द सुनामी बन जब आता
शांत सुशांत कहां टिक पाता
प्रबल वेग तूफान ढहाता
मन मस्तिष्क गृह सब बह जाता
अर्थ तंत्र माया की नगरी
चमक दमक अन्दर है खोखली
लोभ मोह बालक प्रिय प्रियतम
होता क्या ? बन्धन सब बेदम
कुंठा बन अवसाद लीलती
सुख समृद्धि जग काल झोंकती
बड़ी बेरुखी जग जब मिट्टी
सांसें फिर - फिर थम ही रहतीं
मिट्टी छोड़ गए जब हारे
टूटा कंधा गए पिता जीवित ही मारे
फटती छाती दृग निर्झर सा
अन्धकार जग सब सूना सा
________________
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर 5
9- 9.26 PM रविवार
देवरिया उ. प्र .


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

जब तक दम पतवार चलाए



काली स्याह रात टल जाती
भोर किरण ले आती है
ग्रहण लगे कितना भी निर्मम
ठहरे ना , धवल चांदनी आती है
भीषण बाढ़ कटाव रौंद दे
अंकुर फिर उग आते हैं
डूबा उतरा फिर फिर आता
सांसें साथ निभाती हैं
मन के हारे हार कहा सच
मन जीते जग विजय दिलाए
हारो ना हे कर्म पुरोधा
द्वंद प्रश्न हर हल हो जाए
प्रेम अगर माटी-तिनके से
काल व्याल अरि लौट के जाएं
धैर्य धार - दुर्लभ तन मानव
जब तक दम पतवार चलाए
सुन्दर तन मंदिर निज बस मन
हो बुलंद हरि पार लगाएं

Me
दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

बदरी रंग बिरंगी उड़ती पवन संग, दुल्हन बन छाई

तरुवर नाचे पुष्प खिले हैं
टिप टिप, रिम झिम वर्षा अाई
बदरी रंग बिरंगी उड़ती
पवन संग, दुल्हन बन छाई
मोर नाचते दादुर बोले
कोयल कूके पक्षी कूजें
ताल सरीखे इत उत पानी
टर्र टांय मेंढ़क - मनमानी
उछलें कूदें बालक पानी
हहर हहर मन प्रिय प्रियतम के
बन बादल बदली उड़ मिलते
लगे गले मुख चूम रहे हैं
सपने खोए झूम रहे हैं
सपने सच तो कहीं विरह है
बरस रहे कुछ भेज रहे हैं
नेह निमंत्रण हिय जी भर भर
कजरारे नैनन की चितवन
लाली लाल गुलाब चमन कुछ
मदमाते बौराती कुछ भी
तेज गति छनकाती पायल
आसमान उड़ खेल रहे हैं
खेल रहे बस खेल रहे हैं....
पुनः.....


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

बूढ़े काका की आंखों के तारे प्यारे बिछड़ गए


बूढ़े काका की आंखों के
तारे प्यारे बिछड़ गए
इतने सारे मोहक सपने
अंगारों से दहक गए
जिसको पाला पोसा सींचा
नागफनी क्यों बने चुभे

दीन दशा काका की देखे
खुद काका बन जाऊं मै
स्नेह अधिक या कमी कहीं थी
सोच सोच पगलाऊं मै
नशे धुत्त चंदन में भी विष
क्यों कुछ समझ न पाऊं मैं

बोझिल आंखें झरते झरने
खुद से ना लड़ पाऊँ मै
लोग हंसेंगे टीस लिए हिय
कभी बचूं फिर उसे बचाऊं
कुंठा और विषाद मार दे
कभी डरा डर जाऊं मै

खून मेरा ही खून अजब रे!
आंगन तुलसी रूखा पाऊं
नागफनी भी अब तो भाई
आंगन मेरे काट न पाऊं ।

लखनऊ
३०.६.२०२०




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

जब बेटे ने उनको डांटा

अपलक देख रहे थे बापू
जब बेटे ने उनको डांटा
ममता भी थी रोक न पाई
वो समाज का बना था कांटा

नागफनी कैक्टस थे संगी
गुल गुलाब जनधन को लूटा
श्वेत वसन भी संगी साथी
लोलुप लंपट पाता पूजा

रिश्ते नाते मानवता की
हत्या क्रूर था चेहरा दूजा
कांटे कांटे जब हम बोएं
क्या आंगन क्या तुलसी पूजा

बूढ़ी आंखे निशि दिन बरसें
घर मंदिर सब लगता सूना
दर्द बढ़े नासूर बने जब
काट अंग ना सब हो सूना

अति फल खुशियां तो कुछ देता
डाल पेड़ आंधी गिर जाता।
मानव दानव जब बन जाता
खून उतर आंखों में आता

आओ जब हम पौध लगाएं
काट छांट करते ही जाएं
टेढ़े मेढे रोग विषाणु
कर उपचार राह पर लाएं ।

लखनऊ
11.26 रात्रि
12 जुलाई 20

28

दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

साफ होगी हवा कल बनेगी दवा


ग़म की बदली जो छाई है टल जाएगी
वो सुहानी किरण आज फिर आएगी
हम न हारे कभी आज फिर जीतेंगे
नेत्र अब हैं खुले हौसले सब मिले
साफ होगी हवा कल बनेगी दवा
रोग ताकत पे अपनी ठहरते कहां
हैं प्रभु बन के उतरे चिकित्सक यहां
लहरेगा फिर तिरंगा और देखे जहां ।
7.40 7.59 पूर्वाह्न
15 जुलाई 20
लखनऊ


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

भ्रमर का है दूर गुंजन


न जाने क्या हुआ इस गुल गुलिस्तां में
कलियां बन सयानी खूब पर्दा कर रही हैं
चमन है खूबसूरत हैं नजारे बागवां के
भ्रमर का है दूर गुंजन जाने क्या इसमें कमी है
शोखियां हैं जाम है जन्नत सभी कुछ
दूरियां मुंह खोल खाने को खड़ी हैं
भोर पर बरपा कुहासा निशा उजली है खड़ी
तार ढीले शिथिल वीणा गीत झंकृत कुछ नहीं
बेबसी ही बेबसी चेहरा मरुस्थल सा हुआ
नैन नम हैं आंसू गायब पलकें कांटे सी बिछी हैं
खोजता हूं नींद आए ख्वाब आ आ के सुला दें
आती परियां आसमां से गहरे सागर में डुबातीं
हौसला है हंस जैसा मोती चुगने मै बढ़ा
ज्वार भाटा रेत साने फेंक देते दे पटखनी
11.30 P M-12.12 A M




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

सावन की छटा निराली है


मलयानिल बह रही आज ,
रिमझिम फुहार सुखदाई है
खिले पुष्प अनुपम गुलाब
हर ओर बिछी हरियाली है
ताल तलैया खेत बाग मन
सागर नदियों की क्यारी है
झूला कजरी नागपंचमी
बच्चों की किलकारी है
मनहर मधुमय सब मधुप खिले
सावन की छटा निराली है


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

कितने सारे सांप यहां पर


कितने सारे सांप यहां पर
फुफकारे पर पूजा पाते
आस्तीन के अंदर बैठे
समय मिले बस दांत चुभाते
दो मुंहवा कुछ भोले भाले
गले लगे हैं जीभ निकाले
अजगर भी कुछ रेंग रहे हैं
बोझ जमीं पर निगल भी जाते
लाल हरे चितकबरे काले
हुए भ्रमित तो बने निवाले
कुछ भोले चंदन बस लिपटे
कर्म जात अपना हैं भूले
सांप न केवल हमें डराए
निर्बल खुद को खा भी जाए
नाग कई जो दांत तुड़ाए
परवश खाएं उन्हें खिलाएं
बीन बजे तो नाच दिखाएं
कभी वक्त खूं पी भी जाएं
कहीं कराईत कहीं कोबरा
किंग कहीं कुछ मंदिर जाएं
हों अशक्त तो रेंग साथ में
खाते पीते साथ निभाएं
इधर उधर सब जगह सांप हैं
मेंढ़क जैसे कूद रहा मै
इनके उनके मध्य पांव रख
सहमा डरा हूं जूझ रहा मै
भय कायर डरपोक कहो कुछ
बना वीर अब तक मै जीता
अगर सांप से लड़ता रहता
अल्प आयु मुश्किल था जीना
बहुत सांप ने मुझे सिखाया
अपना अपना रास्ता पकड़ो
हानि किया ना कुछ क्षति पाया
राह चुनो जीतो बस निकलो ।

10.45 pm 00:27 AM

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5
DEORIA U P




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Friday, June 12, 2020

ख्वाबों में वो रचे घरौंदे
कितने, मटियामेट हुए,
आंसू की कुछ थाह नहीं है,
स्नेह पुष्प नासूर बने,
गली गली जब एक सा रोना
हृदय सांत्वना देता है ,
रिसते रिश्ते घाव मौन है
शूली भी चढ़ लेता है



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Sunday, May 3, 2020

मानव मानवता को वर ले




हमने मिलकर थाल बजाई,
शंख बजा फिर ज्योति जगाई,
मंत्र जाप मन शक्ति अाई,
योग ध्यान आ करें सफाई,
जंग जीत हम छा जाएंगे,
विश्व गुरु हम कहलाएंगे,
आत्मशक्ति अवलोकन करके,
एकाकी ज्यों गुफा में रह के,
जन मन का कल्याण करेंगे
द्वेष नहीं हम कहीं रखेंगे
प्रेम से सब को समझाएंगे
मानव मानवता को वर ले
पूजा प्रकृति की जी भर कर ले
मां है फिर गोदी में लेगी
पीड़ा तेरी सब हर लेगी
हाथ जोड़ बस करे नमन तू
पाप बहुत कुछ दूर रहे तू
जल जीवन कल निर्मल होगा
मन तेरा भी पावन होगा
मां फिर गले लगा लेगी जब
खेल खेलना रमना बहुविधि
सब को गले लगाना फिर तुम
हंसना खूब ठ ठा ना जग तुम।

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर 5
UTTAR PRADESH
10APRIL2020
7.11 AM

















दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Saturday, March 28, 2020


* मेरा हर मित्र उनके हर नजदीकी और मित्र, सभी रिश्तेदार स्वस्थ और सुरक्षित चाहिए, आप सब मेरी अमूल्य धरोहर हैं।

आप सभी जन अपने आप को स्वस्थ रखते हैं तो मुझ पर आपका बड़ा ऋण रहेगा।।

ईश्वर आपको स्वस्थ बनाए रखें। समृद्धि तो हम हमारी एकता से पुनः अर्जित कर लेंगे...!!
कृपया आप सभी स्वयं का ख्याल रखें सामाजिक दूरी बनाए रखें, साफ सफाई रखें..
स्वस्थ रहें... सुरक्षित रहें...!!*
मां जगदम्बे सब को असीम ऊर्जा दें
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर5

🙏🙏

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दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं