BHRAMAR KA DARD AUR DARPAN

Wednesday, September 24, 2014

पागलपन (न जाने किस मन को क्या भा जाये )


पागलपन (न जाने किस मन को क्या भा जाये )
सोचें सभी बन आये कवी , मन भये वही शब्दों का जोड़ा
छोटे कवी तो बहायें सभी , इतराए- हंसी जन्मों का भगोड़ा !!
जाने ना हैं सीखे वही गिर कर भी धाये चढने को घोडा
मानें ना हैं खीसें वही ,बिन के फिर आये मढने को मोढ़ा !!
"पागलपन" क्या जाने वो , सोना -ना -भाए -खाने को !
सावन छान क्या होवे भादों ,खोना ना जानें पाने को !!
कण -कण पराग ला बनती मधु मीठी , नीरज भी खिलता कीचड में
मन हर समान न ऊँगली समु नाही , धीरज भी मिलता बीहड़ में !!
सविता रोती कुछ, चिल्लाता कोई सौतन ये , घर गाँव कहे आवारा हुआ
कविता-प्रेमी खुश दर्शाता कोई सौहर ये , माँ बाप कहें कुछ न्यारा हुआ !!
संच सुनो -पीय-मेरो विलक्षण , दुःख संग फिरे-एक रस -रंग
कांच गुनो-सीय फेरो-किलकन , उठ-भंग पिए -रेंगा मन जंग !!
लिख हास्य कथा चटपटा सुनाओ ,व्यथा न भाए तनहा मन
बिन चादर बस मेरे मन , अधपका पकाओ , कविता सुन रोये पगला मन !!
घन-घन क्या जाने उनका मन , कोई मारे-जल लाये-बचाए यह जीवन
तन -तन क्या जाने उनका मन , कोई -ताने -जल जाये समाये यह जीवन !!
भ्रमर कहीं कुछ वक्त ना दे , नीरस कह भागे प्राण छुडाते हैं
भरमार कहीं कुछ भक्त बनें, जीवन कह -आये-हार -पिन्हाते हैं !!
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५ ३१.५.२०११

हजारीबाग ५.२.१९९४ 


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Friday, September 12, 2014

परख PARAKH

(4) परख PARAKH
हर दाने नहीं हों खाने को ,हर आंसू व्याधि बंटाने को,
पहचाने सभी को-जाने को , हर वार हो कश्ती डुबाने  को !

हर दांत होते खाने को , जुगनू लगाये आग कभी ,
हर हाथ उठते देने को , धुन यूं बसायें बाग़  कभी !

तलवार भी क्या जब धार नहीं , वह आग नहीं जब आंच नहीं ,
वह माँ क्या जिसमे प्यार नहीं , संतान बुरी- तब बाँझ भली !!


सब देखे ना ही सच होता ,रश्मि आये ना हाथ कभी,
घर आये सभी मेहमान होता, ऊँगली पकडे ले बांह कभी !!

मोम छुएं तो कठोर लगे , हिम भी बन जाता पानी है ,
चोर देखे चोर लगे , प्रिय भी बन जाता पापी है !!

हर उल्का ना सब नाश करे , चपला दिखाए राह सदा ,
वह ममता ना बस प्यार करे, अबला बनाये भाग्य सदा !!

सरसों से दिखते तारे भी, नजदीक नहीं हैं पहाड़ सभी ,
महलों में बसे ही सितारे नहीं, संगीत नहीं लय -ताल नहीं !!

तीखी भी औषधि होती है -विष दन्त नहीं हों सांप सभी,
विष की औषधि  विष होती है ,भ्रमर सभी लो भांप भली !!

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर
१५.०४.२०११

(लेखन -२५.०२.१९९४ कोडरमा झारखण्ड)

दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं