BHRAMAR KA DARD AUR DARPAN

Tuesday, March 4, 2014

'लाल' नहीं पाया ना 'प्याला'


 ( photo with thanks from google/net)
मधुशाला में मधु है उसकी
चोली दामन साथ निभाती
दिल  की  हाल बयाँ  करते हैं
चार यार संग बन बाराती
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कभी  हँसे 'कद' रोया  करदे
नाच झूम मन की सब कह्दे
दर्द-दवा-है वैद्य वहीं सब
अपनी कहदे उनदी    सुनदे 
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एक 'कमाई'- बेंच के लाता
चार मौज मस्ती रत रहते
कहीं  कोई खाली जो आता
कभी धुनाई गिर पड़ खाता
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एक-एक पैग जो अंदर जाते
भाव भरे हर व्यथा सुनाते
सच्चा इंसा हूँ मै यारों
'पागल' दुनिया घर  फिर आते
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बात-बात में बने बतंगड़
धक्का-मुक्की दिन या रात
कभी ईंट तो मारें कंकड़
गली मोहल्ला ज्यों बारात
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'छज्जू' के हैं छह-छह कुड़ियां
दिखती सारी  प्यारी गुड़िया
जाने कौन कर्म ले आयीं
प्रेम में रत या जहर की पुड़िया ?
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'कुछ' कहती ये बड़ा शराबी
'पी' लेता तो बड़ी खराबी
'लाल' नहीं पाया ना 'प्याला'
समझो ना फिर -इसको घरवाला
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बद अच्छा बदनाम बुरा है
किया हुआ हर काम बुरा है
'सच्चाई ' दबती फिर जाती
गली मोहल्ले 'वही' शराबी ....
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दुश्मन पागल, आवारा सा चीखे
लट्ठ लिए पागल सा घूमे
कभी किसी की चोटी खींचे
मार के रोता आँखें मींचे
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मै ना कोई शराबी यारा 
'बदचलनी '  के गम   का  मारा 
भटकी बीबी  कुड़ियां जातीं
नाक है कटती शर्म है आती
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'यार' बड़े उनके हैं सारे
आँख दिखा  मुझको  धमकाते
रोता दिल 'नासूर' अंग है
काट सकूं ना -ना-पसंद हैं
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माँ की सहमति से बालाएं
सजधज मेकअप जाएँ-आयें
'पप्पा' को मिटटी बुत समझें
चैटिंग पूरा दिवस बिताएं
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उस दिन पुलिस बुलायी थी तू
बैठक दंड कराये खुश थी
आज बनाऊंगा मै मुर्गी
याद रखेगी जीवन भर तू
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'छज्जू' बोला आज हे मुई
मर जाऊंगा 'धर' तारां ( बिजली)  मै
रोज-रोज मरता है क्यों भय
मर जा -जा मर तंग मै हुयी
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लिए लट्ठ छत के ऊपर वो
गया थामने 'बिजली' दामन
चीख पुकार शोर रोना 'हुण'
लाठी ईंटों की फिर वो धुन
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पापा ! मम्मी ! , रोती कुड़ियां
सच्ची-प्यारी-  मार भी खाईं
हंसी व्यस्त कुछ कथा सुनाती
मै सच्ची हूँ , अजब  ये दुनिया ....
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हुआ इकठ्ठा रात मोहल्ला
'गबरू' कुछ फिर चढ़े बढे घर
'छज्जू' भागा कूद-फांदकर
कान पड़ी जब पुलिस-पुलिस तब
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कौन है सच्चा  कौन है झूठा ?
दया रहम दोनों पर आती
'रोजगार' ना कभी 'गरीबी'
'इन्हे' इसी मन्जिल पहुंचाती
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'सपनों' में जीने की खातिर
कभी दिखावा -'पेट' की खातिर
लता-बेल 'कांटे' चढ़ जातीं
या दल-दल में फंसती जातीं
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पति-पत्नी का कैसा रिश्ता ??
मिले 'लाल' ही है मन मिलता
तन-मन प्रेम सभी का हिस्सा
नहीं प्रेम कल का बस किस्सा
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अपराधी हैं ताक में रहते
बिगड़े सब,  'कुछ' तो बिक जाए
कौड़ी भाव में 'स्वर्ण' मिले तो
निज दूकान तो सजती जाए
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दोस्त शराबी के फिर आते
'साहस' दे गृह फिर दे जाते
'माँ' कहती हे! पास पडोसी
ना जाओ ना फिर 'वे' आते
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बुलबुल कहाँ कैद रह पाएं
खोलो पिजड़ा फिर -फिर आयें
रहें कहाँ ना साथी पाएं
निज करनी हैं पर कतराए
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'रब' हे ! ऐसे दिन ना लाओ
शांति रहे, मन -मंदिर सुन्दर 
प्रेम-पूज्य मूरति सीता-शुभ
राम 'परीक्षा-अग्नि' भाओ
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सत्कर्मों से मिला सुघड़ तन
नरक वास हे! क्यों मन लाते
मनुज प्रेम 'मानव' निज तन कर
मृग मरीचिका क्यों भरमाते ??
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( एक आँखों देखी सच्ची व्यथा कथा पर आधारित, प्रयुक्त सभी नाम काल्पनिक हैं और किसी के जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं हैं , कुछ शब्द पंजाबी के प्रयुक्त हैं )
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर'
२०-०२.२०१४ करतारपुर जालंधर पंजाब
१०-३०-११.१५ मध्याह्न



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

4 comments:

  1. सुन्दर-

    आभार आदरणीय-

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  2. प्रिय रविकर जी रचना के दर्द और मर्म को आप ने समझा और सराहा सुखद लगा
    आभार
    भ्रमर ५

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  3. प्रिय मित्रों इस रचना को आज के जागरण जंक्सन के टॉप ब्लॉग में स्थान दिया गया आप सभी पाठकों का बहुत बहुत आभार
    भ्रमर५

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  4. समय के साथ संवाद करती आपकी यह प्रस्तुित काफी सराहनीय है। मेरे नए पोस्ट DREAMS ALSO HAVE LIFE पर आपके सुझावों की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी।

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दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं
अभिनन्दन आप का ,हिंदी बनाने का उपकरण ऊपर लगा हुआ है -आप की प्रतिक्रियाएं हमें ऊर्जा देती हैं -शुक्ल भ्रमर ५