BHRAMAR KA DARD AUR DARPAN

Wednesday, May 30, 2012

लक्ष्मण रेखा


लक्ष्मण रेखा
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वही तन वही मन
खूबसूरत -प्रेम प्यार
बीस की दहलीज पार
अंगारों से भरी राह
बेचैनी आह
पाँव जल जायेंगे
उधर मत जाना
ये मत करना
वो मत करना
लक्ष्मण रेखा
खींच दी गयी थी
तितली सी उडती -दौड़ती
उस बगिया में जाना
उस पेड़ -लता से चिपक जाना
घंटों बतियाना उससे
बहुत कचोटता था अब मन को
दिल में उफान हाहाकार !
छोटी सी नदिया
तब -बाँधी जा सकती थी
जब छोड़ दी गयी थी उन्मुक्त
अब बाढ़ आ चुकी थी
उछ्रिन्खल-जोश -जोर
हहर-हहर बार बार उफनती
शांत होती ..
कुछ कीचड़ कुछ फूल
संगी -साथी
सब बहा जा रहा था
तेज गति से
न जाने कब तक
ये बंधन ये बाँध
अब इससे लड़ पायेगा -
बांधे रहेगा ?
कभी न कभी
आज नहीं तो कल ये
टूट जाएगा …….
और
सरिता -सागर के आगोश में
पुरजोर दौड़ लगा
खो जायेगी !
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
३.४६-४.०२ पूर्वाह्न
कुल्लू यच पी १३.०२.२०१२



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Thursday, May 24, 2012

मै खुश्बू हूँ मगन रहूँ मै


हमारे  ब्लॉग खुश्बू से लिया गया ..आप सब के आशीष हेतु ....



आज  आप  सब के आशीष से  हमें दोहरी ख़ुशी नसीब हुयी एक  तो जन्म दिन पर आप सब का आशीष और भरपूर प्यार और दूसरी तरफ आज यू पी बी एड का परीक्षा फल घोषित हुआ जिसमे मै खुश्बू १७५५ वी रैंक हासिल कर सकी जितनी आशा थी नहीं कर पायी लेकिन घर परिवार आप सब का प्यार यों ही मिलता रहेगा तो इस समाज के लिए कुछ न कुछ रचनात्मक करूंगी ..
आप सब का बहुत बहुत आभार ...बहुत आभारी हूँ मै अपने गुरुओं का , माँ पिता भाई बहन और आप सब का भी .....अब मंजिलों पर कदम बढ़ चले हैं




....हरी ओउम 
खुश्बू
पुत्री  आप सब के  "भ्रमर"  जी 






मै खुश्बू हूँ मगन रहूँ मै
महकूँ मै महकाती जाऊं 
तितली सी उडती जाती मै 
बड़ी दूर तक  देखो तुम्हे छकाये 
मलयानिल संग घूम फिरूं मै 
उड़ उड़ आती अपना पर फैलाये 
मै खुश्बू हूँ........... मगन रहूँ मै
महकूँ मै महकाती जाऊं 
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सुन्दर-सुन्दर पुष्प हमारे 
जननी-जनक हैं न्यारे 
                                              (ये है छोटी बहना कविता -कविता ब्लॉग वाली )


                                                (ये है नटखट मेरा भाई सत्यम -बाल झरोखा सत्यम की दुनिया वाला )

भगिनी -भाई बड़े दुलारे 
कोमल आँख के तारे 
सभी ख़ुशी हैं उनको देखे
खिंचे चले ही आते 
सुन्दर जब परिवेश हमारा 
बगिया हरी भरी हो
प्रेम पुष्प जब खिलें ह्रदय तो
खुश्बू मन भर ही जाती 
मै खुश्बू हूँ मगन रहूँ मै
महकूँ मै महकाती जाऊं ….
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आनंदित जब मन हों  अपने 
दुनिया अच्छी लगती 
गुल-गुलशन अपना खिल जाए 
बात ये बिलकुल सच्ची 
गले मिलें सौहार्द्र भरा हो 
हर मन हर को प्यार भरा हो 
सभी कृत्य अपने हों अच्छे 
बिना चाह के -जैसे बच्चे 
मगन रहूँ मै ... मै खुश्बू हूँ 
मै खुश्बू हूँ मगन रहूँ मै
महकूँ मै महकाती जाऊं ….

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मै खुश्बू हूँ सदा सुवासित 
अन्तरंग तेरा महकाऊँ
रोम -रोम पुलकित कर तेरा 
जोश -होश सारा दे जाऊं 
अधरों पर मुस्कान खिलाती 
खुशियों की बरसात कराती 
मै खुश्बू हूँ ....
मै खुश्बू हूँ मगन रहूँ मै
महकूँ मै महकाती जाऊं ….

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मेरे जन्म-दिवस पर आना 
खुश्बू मन भर -भर ले जाना 
अपने आशीर्वचन सुनाना 
मै जीवंत रहूँ इस उपवन 
सांस में तेरी सदा -सदा -'वन '
गाँव -शहर या गिरि कानन  सब 
दिल में तेरे बसी चलूँ मै 
उन्नति पथ पर सदा उडाऊं 
तितली सा मै रंग -बिरंगी 
सपने तेरे सच कर जाऊं 
इस घर उस घर जहां भी जाऊं 
महकूँ मै महकाती जाऊं 
मै खुश्बू हूँ मगन रहूँ मै
महकूँ मै महकाती जाऊं ….
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर 
२४.५.२०१२ कुल्लू यच पी 
७-७.२६ पूर्वाह्न 



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Friday, May 18, 2012

ईश्वर-१ (कड़ी -३)


ईश्वर-१  (कड़ी -३)

कठपुतली से बंधी डोर हम नाच रहे हैं
नटिनी सा रंग -मंच जग सारा
अनचाहे-चाहे हम क्या क्यों करते
उड़ता कोई लगा के गोता खोज रहा जग सारा
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भ्रम -विभ्रम से जो देखे जग
वही मान कर सदा व्याख्या करता
कर प्रत्यक्षीकरण  समझता
गोल-गोल मंडराता रहता
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मृग मरीचिका नाग-मणि कस्तूरी क्यों है
जन्म -मृत्यु होनी -अनहोनी उलझा  जाता
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तेरे कर्षण-आकर्षण में कितनी सृष्टि लटकी
कितने जीवन जीव -आत्मा परमात्मा में बसते
कुछ पदार्थ कण गुण -ढंग खोजे फूले नहीं समाते
कर प्रयोग जादूगर जैसे महिमा अपनी गाते
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तेरे एक ही पल में ईश्वर कितनी दुनिया रचें मिटें
जैसे मानव जीव देखता कीट बहुत जनते-मरते
कितने उल्का पिंड टूटते ग्रह नक्षत्र अंदाज नहीं 
बरमूडा ट्रेन्गिल है देखो ब्लैक होल की थाह नहीं
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सारा दृश्य -अदृश्य है तेरा हम सब तेरे अंश प्रभो
तीन त्रिलोक तीन  पग  नापे शेषनाग बन  थामे
मत्स्य कूर्म कच्छप ना जाने कितने रूप दिखाते
हिरणाकश्यप - राम - कृष्ण कब महा-पुरुष बन आते !
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जो तेरी लीला को खोजे मन -मष्तिष्क चलाये
भव-बंधन से मुक्त हुए हंसता हरियाता जाए
भौतिक सुख से सूक्ष्म जगत में ध्यान योग से आये
बड़ा अलौकिक ज्योति देख वो दुनिया सब बिसराए
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कुछ अहम भरे मद-मत्त हुए लोगों से पाँव धुलाते
हे ! ‘ईश्वर कण-क्षण तू व्यापित तुझको जान न पाते
"एक" हैं सब बस "एक" अंश हैं क्या ऊंचा क्या नीचा
कर सम्मान एक दूजे का नेह से बस सब सींचे !
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल "भ्रमर ५ "
कुल्लू यच पी , 28.04.2012
6.0 -7.0 पूर्वाह्न




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Sunday, May 13, 2012

माँ अति प्यारी !


असीमित विस्तार 
ममता अपार
माँ का प्यार !
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सुख की मेह
करुना सागर
माँ का नेह !
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त्याग  वलिदान 
सुख की खान
"माँ" एक नाम !
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खुशियाँ किलकारी
सर्व दुःखहारी
माँ अति प्यारी !
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मरू में छाया
अमृत धारा
माँ की माया !
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दो कुल का कुल-दीपक
'लक्ष्मी'-जनती -कुल-दीपक
रचती -माँ-पिता-माँ  ही "एक" !
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शिशु की जान
हम सब की  पहचान
माँ -एक नाम !
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देश की आन , बान ,शान
धरोहर , कला, विज्ञान
रच "शिशु" देती “माँ” अनोखा  दान  !
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
कुल्लू यच पी
१३.०५.२०१२ ८-८.२५ पूर्वाह्न






दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Thursday, May 10, 2012

images

जैसे गोरी घूँघट में हो
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रंग बिरंगी बदरी डोलीं
घेर गयीं “दिनकर” को
शरमाया सा छुपा जा रहा
आंचल – बदली के वो
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तभी प्रिया ने करवट बदला
छन- छन लाली आयी
सप्त रंग के इंद्र धनुष बन
शरमाना दिखलाई
जैसे गोरी घूँघट में हो
पलक किये कुछ नीचे
चपला सी मुस्कान लहर को
वो अधरों में भींचे
rainbow
छुई – मुई सी कोई कली सी
हो बैठी सकुचाई
लेकिन भाटा – ज्वार उठे तन
अंग – अंग सिहरन भर आई
सूर्य रश्मि तब लिए लालिमा
छन – गालों- अधरों -पलकों हो
शर्मीली बन हृदय समाई
द्युति चमकी बस दिखी एक पल
खो तम-गयी-लजाती !
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल “भ्रमर”
८-५-२०१२ कुल्लू यच पी
७.३०-८.१५





दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Wednesday, May 2, 2012

ईश्वर-१ (कड़ी -2)


ईश्वर-१  (कड़ी -2)

वो ही हन्ता वही नियंता
भू -रज -कण जल में
माया मोह जुगुप्सा इच्छा
काम क्रोध है लोभ सभी के मन में !
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वो चिन्तन है वो अचिन्त्य है
लभ्य वही है वो अलभ्य है
बुद्धि विवेक ज्ञान गुण तर्पण
ब्रह्म नियामक  दिव्य तेज है
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निर्गुण सगुण जीव जड़ जंगम
प्रेम सुधा करुना रस घट है
झरना सरिता गिरि कानन है
वो अथाह सागर है
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आदि शक्ति है अन्वेषी सचराचर है
उल्का धूम-केतु गढ़ नक्षत्र है
भक्ति यही वैराग्य यही है
अचल सचल रफ़्तार यही है
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नीति नियम आदर्श मूल्य ये
बड़ा अपरिमिति अगणित रहस्य है
प्राण वायु घट-घट में व्यापित
गति विराम कारक प्रेरक है
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यही अजन्मा ये अमर्त्य है
परे बुद्धि के सब -समर्थ है
मै अज्ञानी मूढ़ सकूं ना सोच तुझे जगदीश्वर
दशों दिशाओं जित देखूं मै ईश्वर ईश्वर !
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मानव हूँ मन ही भरमू  बस
ये जीवन तन -मन अर्पण सब
मन मष्तिष्क में ज्योति बना रह
सूक्ष्म जगत या सूक्ष्म मिलाकर !
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दृग जो देखे मन जो सोचे
लाख चौरासी योनी भटक जो खोज करे
तुम बिन हे ! प्रभु  ईश्वर मेरे
आस्तिक -नास्तिक खोज कहीं कब क्या है पाए
माया मोह के उलझन उलझा घूमे लौटे
पंछी सा उड़ -उड़ जब हारे इसी "नाव" फिर आये
27.04.2012- 6.00-7 poorvahn-kullu h p 


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं