BHRAMAR KA DARD AUR DARPAN

Monday, April 25, 2011

----यादें ----


अपनी   माँ  अपनी  ही  होती  है -अपना भारत   
----यादें ----
जब जब ठेस लगी है
मेरे-धूल में सना हूँ
लिपटा हूँ -उर से उसके
याद आई है माँ की


झाड़ फूंक कर उठाया था
मोती गिराए- गले- से
लगाया था जिसने !!

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर
२५ .०४ .२०११
(photo with thanks from other source)

दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Sunday, April 24, 2011

Check out मथुरा को फिर एक कंस ने- किया कलंकित « Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'

Check out मथुरा को फिर एक कंस ने- किया कलंकित « Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'

खिल ‘गुलाब’ सी खुश्बू देती


चंदा जैसे दूर गगन में
रह भी कितने प्यारे
सांसो में मेरी बसते हो
मन में कर उजियारे !!

अगर पास तुम- मेरे- होते
तो मै होती धवल चांदनी
पपीहा सी मै रहूँ निहारे
कितने मौसम बीते !!

कली के जैसे बंद पड़ी मै
जो प्रिय मुझको छूते
खिल गुलाब सी खुश्बू देती


 भौंरे सा तुम अरे पिया-
फिर- कैद यहीं हो जाते !!





कोयल सी मै कूकती होती

जो तुम पास हमारे !!





(photo with thanks from other source)
अगर कहीं तुम
इस बगिया या उस उपवन मे
होते- तो -मै -प्रियतम -
बनी मोरनी


नाच -नाच खुश होती !!





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इस 'सर' मे जो
परछाईं भी
मेरे हंस की -


तेरी हंसिनी




(photo with thanks from other source)


कमल के जैसे


खिली हुयी
'तर'-'तर' के- फिर
सबका 'मन' हर लेती !!







सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
२४.४.२०११ जल पी बी 

दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Monday, April 18, 2011

उस बिजली के आलिंगन से


उस बिजली के

आलिंगन से


बादल जब मै
गर्वोन्नत हो
गरज गरज कर
घूम रहा था
सूखा -  रूखा
उस बिजली के
आलिंगन से
'छलनी' हो दिल
बरस पड़ा था

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
१६.४.2011



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

कली से जब तुम फूल बनी थी


कली से जब 
तुम फूल बनी थी 


वहीँ पास में 
डेरा डाले 
उस दिन मैंने 
पुंकेसर -   केशर -  दल
सब कुछ -रंग -बिरंगा
भौंरे सा कुछ
उड़े -  मचलते
देख लिया था
 सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
१७.४.११ जल पी.बी. 



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

गोकुल का आनंद समेटे- सत्य नारायण का प्रसाद हैं


सत्य नारायण का प्रसाद हैं


सरयू पावन की गोदी में
शिव ने हमें दुलारा 
माँ-सरोज ने हमें खिलाया 
कीचड़ में ये कमल उगा 
राजा राम दिए आदर्श 
शंखनाद फिर राम-राज्य का
जय जय राम घोष स्वर गूंजा 
सीता राम की मूर्ति दिल ले 
सत्यम शिवम् सुंदरम को भज 
तुलसी की मै राह चला 
करी वंदना और साधना
गंगा--गोदावरी सरस्वती की
ममता पा के
बरस उठा घन-श्याम मेह
बचपन गोदी माँ की छोड़े
चौरासी में भटक रहा
कर्म क्षेत्र उजियारा बिजली
भारत बाहर -जहाँ तहां
मधुर-मधुर फिर गीत रचे
दर्द और दर्पण ने दिल  के
खुश्बू बेला की माटी पा
अवधपुरी अवधी प्रतापगढ़
रामायण की बिखरी खुश्बू
प्राणवायु को साँस समेटे
अब मन -मयूर बन
गली -गली में गाँव गाँव में
रोम-रोम में होकर पुलकित
सभी दिशा सागर झीलों में
जन मानस के बीच आज है
लहर -लहर सुर वीणा झंकृत
कभी वीर रसकभी धीर तो
धर्म कर्म करुणा से सज्जित
सोलह कला और श्रृंगार से
कविता को यों सजा रहा
लगता जैसे कोई अप्सरा
कोई मेनका !!
घुंघरू पहने नाच रही हो
इंद्र धनुष सतरंगी रंग से
नील गगन को लाल किये वो
धानी चुनरी सराबोर कर
होली खेले लाल हुयी हो
वो गुलाल सी -खिल गुलाब सी
सेब सरीखी लिए गाल वो
सूरज की आभा होंठो ले
प्रभा तेज ले चली चूमने
विश्वामित्र के योग सत्य को
कामदेव को रूपमती वो
यौवन मदिरा मस्त नैन के
प्याले में भर
जाम पिलाये
माया जाल पाश में बांधे
कोई बवंडर भँवर सरीखी
वो अनन्त सागर में जैसे
चली डुबाने   !!
मै ही सब हूँ या मै क्या हूँ ???
प्रेम परीक्षा प्यार सिखाने 
खुद का भी अस्तित्व मिटाने 
जन कल्याण में किसी हवन में
कूद पड़ी हो !!
जली चली बलिदानी वो फिर
खुश्बू बनकर उड़ निकली हो
इसी धरा पर -फिर से फिर से
प्राण वायु बन
तेरे अन्दर -
मेरे अपने -अपने अन्दर !!!

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर

26.3.2011
जल पी.बी.



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं