BHRAMAR KA DARD AUR DARPAN

Thursday, June 30, 2011

कौवे चार वहां बैठे हैं सोना चोंच मढ़ाये

(जागरण  जंक्सन  दिनांक ३०.०६.२०११ -हमारे सभी पाठकों और जागरण जंक्सन को हार्दिक आभार ये सम्मान देने के लिए -भ्रमर५ ) कृपया ये उपर्युक्त रचना हमारे दूसरे ब्लॉग  भ्रमर की माधुरी में पढ़ें, http://surendrashuklabhramar.blogspot.com )

कौवे चार वहां बैठे हैं 
सोना चोंच मढ़ाये 
उड़ उड़ मैले पर मुह मारें 
काग-भुसुंडी बन बतियाएं !!
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शेर वही जो बाहर निकले 
भूख लगे-बस -खाना खाए 
कुछ पिजड़े में गीदड़ जैसे 
नोच-खसोट-के गरजे जाएँ !!
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हठी मस्त है घर-घर घुमे 
कुत्ते भौं भौं भौंके जाएँ
कभी सामने आ कर भौंको 
मारीचि से तुम तर जाओ !!
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ये घर अपना एक मंदिर है 
देव -देवियाँ पूत बहुत हैं 
कर -पवित्र-आ-दीप जलाना
राक्षस -वन-मुह नहीं दिखाना !!
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अभी वक्त है खा लो जी भर 
लिए कटोरा फिर आना 
अपना दिल तो बहुत बड़ा है 
चमचे-चार-भी संग ले आना !!
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उन जोंकों संग -लिपट रहो ना 
खून चूस लेंगी सारा 
होश अगर जल्दी कुछ करना 
नमक डाल-कुछ नमक खिलाना !!
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नदी तीर एक सेज सजी है 
आग दहकती धुँआ उठा है 
जिनके दिल से खून रिसा है 
दंड लिए सब जुट बैठे हैं 
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शुक्ल भ्रमर ५
२९.०६.२०११
जल पी बी 





दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Tuesday, June 28, 2011

सोचा था एक शेर मै पा-लूं




सोचा था एक शेर मै पा-लूं
बड़े जिगर वाला जो होगा
बचपन से मै प्यार करूँगा
पाल पोष कर बड़ा करूँगा
दूध -हमारा पी कर -पल कर
रीति -नीति मेरी -में घुलकर
एक इशारे में आएगा
चुटकी मेरे बजाते सुनकर
मेरा जिगर वो पढ़ जायेगा
आँख झपकते भाई मेरे
मंशा पूरी कर जायेगा
बड़े जिगर वाला जो होगा
सोचा था एक शेर मै पा-लूं !!
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जोश होश जब अधिक हुआ तो
करतब छल बल सब दिखलाता
कुछ मेरी जब सुनता था वो
मेरे इशारे दौड़ा जाता
उससे भी आगे बढ़ चढ़ कर
मार झपट्टा फिर वो आता
रोक सकूँ -ना-ताकत मुझमे
बड़े जिगर वाला जो था
सोचा था एक शेर मै पा-लूं
——————————-
मुझसे प्यारे उसके आये
आगे पीछे कुछ मंडराए
पेट भरे-गुण दांव पेंच जो
कुछ मैंने थे उसे सिखाये
धार रखे पैना कुछ करते
“पुडिया” उसको कोई खिलाये
सब्ज बाग़ उसको दिखलाये
हमदर्दी हमजोली देखे
शेर मेरा उस ओर खिंचा था
बेबस मै रोता बैठा था
बड़े जिगर वाला वो जो था
सोचा था एक शेर मै पा-लूं
बड़े जिगर वाला जो होगा
———————————
सोचा था एक शेर मै पा-लूं
बड़े जिगर वाला जो होगा
खुला छोड़ गलती मैंने की
ना पिजरा ना कुछ बंधन था
अब जो उसको आँख दिखाता
चढ़ बैठे छाती गुर्राता
मुझसे प्यारे उसके आते
खिला -पिला संग भी ले जाते
निशा -निशाचर उसको भाते
दिन में मुझको नजर ना आता
आज हमारे छाती चढ़कर
पंजा गाड़े हैं गुर्राता
बहलाऊँ -फुसलाऊँ सारा प्यार दिखाऊँ
पिल्लै से जो शेर बना था -राज बताऊँ
कुछ ना सुनता ..
पंजा उसका चुभता जाता
मन कहता है मार उसे दूं
या उस पर मै बलि बलि जाऊं ??
भ्रमर कहें ये प्रश्न बड़ा है
उत्तर इसका लेकर आओ
चीख हमारी गले दबी जो
आ सब मिल -कुछ तो -सुलझाओ !!
सोचा था एक शेर मै पा-लूं
बड़े जिगर वाला जो होगा …


शुक्ल भ्रमर ५
२५.०६.२०११ जल पी बी



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Sunday, June 26, 2011

श्रद्धांजलि

श्रद्धांजलि 

हमारे बेहद करीबी रहे प्रबंधक श्री दुर्गा प्रसाद पाण्डेय जी( १९५७-२५.०६.२०११)  ,



 जो की पावरग्रिड के बिद्युत संचरण लाईन में जालंधर से चमेरा के   प्रोजेक्ट निर्माण कार्य में कार्यरत  थे -और इस समय कुल्लू हिमाचल में तैनात थे -वहां से वे अपने गृह डोमरियागंज सिद्धार्थनगर उ.प्र. गए हुए थे -२३.६.११ को एक शादी में शामिल होने के लिए -लौटते समय लखनऊ में रुके और २५.६.११ की रात्रि में  वहीँ  उन्हें दिल का दौरा पड़ जाने के कारण  पी जी आई लखनऊ अस्पताल  ले जाया गया जहाँ  उनका देहावशान  हो गया - और वे  हम सब को व्यथित पीड़ित छोड़ चले गये -

उन्होंने बहुत सी विपरीत परिस्थितियों-आतंक के साये  में भी जम्मू और कई अन्य राज्यों में विद्युत् पारेषण लाईन में सफलता पूर्वक कार्य किया- इस क्षेत्र में वे माहिर थे -और सभी से उनका अद्भुत लगाव था -वे सब से अपने पद को भूल - खुले  दिल से बातचीत  करते -हँसते हंसाते और काम के प्रति   प्रेरित  करते रहते  थे ! 

उनका योगदान , नेतृत्त्व और कार्य कुशलता हमेशा याद रखी जाएगी - आज  हम सभी उनके दुःख में  शामिल हो उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते  हैं !

प्रभु से हम प्रार्थना  करते हैं की उनकी आत्मा को शांति दे और उनके घर परिवार को इस अथाह दुःख को झेल सकने का सामर्थ्य प्रदान करे ताकि वे अपनी भविष्य की जिम्मेदारियों का निर्वहन कर सकें !

आइये प्रभु से दुआ करें की असमय किसी को इस तरह का दर्द न दें -

व्यथित मन से उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते 

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल "भ्रमर" ५ 
जल पी बी 
२६.०६.२०११ 




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Saturday, June 25, 2011

बाघ के मुह में खून लग गया !!


मात पिता से सीखी संस्कृति
सीधा सरल सुहाया मुझको !
लाल बहादुर -गाँधी जैसे कितने सारे
खोज -खोज आदर्श बनाया !!
—————————————
ईमां -धन -की गठरी बांधे
लिए पोटली निकल पड़ा
जीवन पथ दुर्गम इतना था
चोर उचक्के ठग ही मिलते
माया मोह लालसा दे- दे
दोस्त बनो -या -आ-कह देते
——————————
पोटली उन्हें अगर ये दे दूं
तो भूखे मर जाऊं !
दोस्त अगर इनका बन जाऊं
जीवन सारा – चोर कहाऊँ !!
……………………………………..
मै ईमां- धन लेकर बढ़ता
घायल- रोज -शिकार -हुआ
बाघ चढ़े सब छाती मेरे
lion_zebra
(फोटो साभार गूगल /नेट से )
बाघ के मुह में खून लग गया !!
______________________
अब गुर्राते मुझे डराते
खून चूस लेंगे सारा !
धन्य मनाओ मूरख मेरी
अब तक तुझे नहीं मारा !!
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इक्के दुक्के जो भी अब तो
राह में मेरी आये !
जख्म लिए- चीखें- चिल्लाएं
इनको राम बचाए !!
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बाघ के मुह अब खून लगा है
कौन हाथ डाले जबड़े पे !
पीड़ा सब के दिल अब होती
चाहे भी – तो कौन बचाए !!
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ले मशाल गर साथ बढ़ सको
लाठी डंडे हाथ !
बाघ से भैया बच पाओगे
राम भी देंगे साथ !!
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बाघ की शक्ति बहुत बढ़ गयी
ताल ठोंक चिल्लाये !
इस रस्ते पर जो आएगा
छोडूं ना बिन खाए !!
—————————
सत्य अहिंसा सत्य की डोरी
जो जबड़ा ना बाँधा !
कल को सारा खून पिएगा
अभी है चूसा आधा !!
—————————
भेद भाव में बँट या मूरख
कुछ दिन मौज मनाओ !
चक्की में कल पिस ही जाना
एक अभी हो जाओ !!
—————————–
शुक्ल भ्रमर ५



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Thursday, June 23, 2011

शिशु मै - ये प्राण हमारी



कोमल गात पुष्प सा था मै
 हर नजरें चंहु और हमारे
घूम रही मंदराचल मथती
अमृत या फिर विष निकलेगा
शिव प्रकटे या उतरे लक्ष्मी
भय से चेहरे कुछ आकुल थे
राहु-केतु चंदा ना ग्रस ले
पीड़ा मिश्रित दुःख सुख छाये
श्वेत श्याम बादल ज्यों आये
बिजली चमके अरु गरजाए
अँधियारा फिर छंटा सुहाना
सूरज निकला भोर हुआ
किलकारी कानों में गूंजी
मिली धरोहर सारी पूंजी
सूनी   कोख में शिशु यों शोभे
ज्यों अकाल सूखे रूखे में
बदरा बरस हरित सब कर दे
फूले पुष्प हरे तरुवर हों
गले लगे हर मनवा झूमे
अंकुर दिन दिन बड़ा हुआ
फिर धू धू करती धूप जली
मिटटी भी अपने कर्मो में
लाल रंग सी तपी पड़ी
वहीँ कभी अंधड़ तूफाँ से
टूट-टूट फिर धूल उडी
हरियाली वर्षा से हर्षित
नदिया मिटटी उमड़ पड़ी
कभी कभी जर्जर हो प्यारी
पीड़ित हो यों कटी पड़ी
ममता की देवी सी मूरति
मन मोहे जेठ दुपहरी है छाया
रात की ये चंदा -चांदी सी
शीतल ओस सुहावन मोती
लोरी- परी- स्वर्ग है देवी
निंदिया पलकों की है मेरी
चूड़ी यही है चूल्हा है ये
बिंदिया यही है -भाग्य हमारा
ज्योति ज्योत्स्ना दीपक है ये
पुस्तक है ये अक्षर मेरी
नीति नियम संस्कृति है मेरी
प्रथम गुरु है पूज्य हमारी
रक्षा कवच हमारी है ये
प्रेम का सागर अमृत है ये
अनुशासन अंकुश है मेरी
बेलगाम की ये लगाम है
दुर्गा चंडी काली ये है
शिशु मै - ये प्राण हमारी
बेटा -बेटी पर बलिहारी
भेद -भाव से परे जो रहती
दुनिया माँ उसको है कहती
जननी ही न- है जगजननी
प्रथम पूज्य सृष्टि ये रचती
शत शत नमन तुझे हे माता
पावन -कर -हे ! भाग्यविधाता !!
शुक्ल भ्रमर ५
19.06.11. kartarpur jal pee bee



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Tuesday, June 21, 2011

दर्द देख जब रो मै पड़ता

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बूढ़े जर्जर नतमस्तक हो
इतना बोझा ढोते
साँस समाती नहीं है छाती
खांस खांस गिर पड़ते !
दुत्कारे-कोई- लूट चले है
प्लेटफार्म पर सोते !
नमन तुम्हे हे ताऊ काका
सिर ऊंचा रख- फिर भी जीते !!
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वंजर धरती हरी वो करते खून -पसीने सींचे !
कहें सुदामा -श्याम कहाँ हैं ?
पाँव विवाई फूटे !
सूखा -अकाल अति वृष्टि कभी तो
आँत   ऐंठती बच्चे सोते भूखे !
कर्ज दिए कुछ फंदा डाले
कठपुतली से खेलें !
नमन तुम्हे हे ताऊ काका
पेट -पीठ से बांधे हो भी
पेट हमारा भरते !!
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बैल के जैसे घोडा -गाडी
जेठ दुपहरी खींचे !
जीभ निकाले पड़ा कभी तो
दो पैसे की खातिर कोई
गाली देता – पीटे
बदहवास -कुछ-यार मिले तो
चले लुटाये -पी के !!
नमन तुम्हे हे ताऊ काका
दो पैसों से बच्चे तेरे
खाते -पढ़ते-जीते !!
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काले -काले भूत सरीखे
मैले कुचले फटे वस्त्र में
बच्चे-बूढ़े होते !
ईंट का भट्ठा-खान हो चाहे
मिल- गैरेज -में डटे देख लो
दिवस रात बस खटते !
नैन में भर के- ढांक -रहे हैं
“इज्जत” अपनी -रही कुंवारी
गिद्ध बाज -जो भिड़ के !
नमन तुम्हे- हे ! - तेज तुम्हारा
कल - दुनिया को जीते !!
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बर्फीली नदियों घाटी में
बुत से बर्फ लदे जो दिखते !
रेगिस्तान का धूल फांक जो
जलते - भुनते - लड़ते !
भूख प्यास जंगल जंगल
जान लुटाते भटकें !
कहीं सुहागन- विरहन -बैठी
विधवा- कहीं है रोती !
होली में गोली संग खेले
माँ का कर्ज चुकाते !
तुम को नमन हे वीर -सिपाही
दर्द देख -- जब रो मै पड़ता
तेरे अपने - कैसे -जीते !!
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
२२.०६.२०११ जल पी बी


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

मूर्खता (दूसरों से सीखने में हर्ज ही क्या है )

झलक मिलती है सूरज की
उग उठे बादल करे क्या
भनक मिलती है मूरख की
मुह खुले-आभूषण करे क्या
सोने पर धूल पड़े कितनी पर
सोना ही रह जाता है
घोड़े पर चढ़ ले मुकुट पहन
वो राजा ना बन जाता है
आतिशबाजी सी चकाचौंध बस
दीपक ना बन जाता है
खातिरदारी मुंह दांत दिखे बस
दीमक सा खा जाता है
कुल नाश करे- अधिकार मिला
उन्माद भरे ही विचार करे
“भ्रमर” कहें वो लुहार भला
घन मार सभी जो सुधार करे
निज रक्त चाट के खुश होवे
लम्पट- मद में धन नाश करे
निज भक्त मान के सब खोये
कंटक पथ में वह वास करे
जब यार चार मिल जाएँ तो
विद्वानों का उपहास करे
सब नीति नियम ही मेरी मानो
फूलों का दो हार हमें


सुरेन्द्र कुमार शुक्ल
३.०६.२०११ जल पी बी




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Sunday, June 19, 2011

पुरुष “पिता” - पाले -भर नेह

जीवन रथ के दो पहिये का
बड़ा सुहाना अदभुत मेल
एक अगर जो नहीं मिला तो
बिगड़े जीवन का सब खेल !!
नारी प्यारी माँ अपनी तो
पुरुष पिता- पाले -भर नेह !!

मेहनत कर थक दिन भी आये
पहले शिशु को गले लगाये
चूमे उछले गोदी भर ले
भूख प्यास को रहे भुलाये !!

दृष्टि सदा कोमल शिशु रख वो
न्योछावर हो बलि बलि जाये
भटके खुद काँटों के पथ पर
फूल के पलना उसे झुलाये !!

कोशिश उसकी पल पल जीवन
कोई कमी नहीं रह जाये
उसके अगर अधूरे सपने
देखे खुद को शिशु में अपने
संबल -संसाधन सब ला दे
सपने अपने सच कर जाये !!

शिक्षक है वो रक्षक है वो
पालक भाग्य विधाता है वो
ईश रूप है सब ला देता
भटकी नैया तट ला देता
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नाज हमें भी पूज्य पिता पर



जिसने हमको गुणी बनाया
अनुशासन में पाला मुझको
निज संस्कृति को हमें सिखाया||
शुद्ध आचरण सु-विचार से
निष्कलंक रहना सिखलाया !!
सत्य अहिंसा दे ईमान धन
ऊँगली थामे खड़ा किया !
रोज -रोज सींचे पौधे से
मुझको इतना बड़ा किया !!
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अभिलाषा है प्रभु बस इतनी
“मुन्ना”- उनका बना रहूँ !
वरद हस्त सिर पर हो उनका
चरणों उनके पड़ा रहूँ !!
उनकी कभी अवज्ञा न हो
आज्ञाकारी बना रहूँ !!
पिता और संतान का रिश्ता
पावन प्रतिदिन हो जाए
नहीं अभागा कोई जग में
पिता से वंचित हो जाये
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पिता की महिमा जग जाहिर है
शोभे उपमा जहाँ लगा दो !
परम “पिता” परमेश्वर जग के
राष्ट्र “पिता” चाहे तुम कह लो !!
बूढ़े पीड़ित भटक रहे जो
“पिता” समान अगर तुम कह दो
लो आशीष दुआ तुम जी भर
जीवन अपना धन्य बना लो !!
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शुक्ल भ्रमर५
१९.६.२०११ जल पी बी



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Friday, June 17, 2011

हम मारे मारे भटकने लगे दुनिया से हमें क्या-हमारी सरकार पर पूरा भरोसा है

सूरज निकला दिन चढ़ आया
और फिर हम मारे मारे भटकने लगे
विकासशील देश है हमारा
यहाँ सब कुछ न्यारा न्यारा
कोई चाहे लोक पाल
कोई बना दे जोक पाल
हम स्वतंत्र हैं
चुनी हुयी सरकार है हमारी
स्वतंत्र
दुनिया से हमें क्या ---
दुनिया को हमसे क्या ??





मेरी अलग ही दुनिया है
उधर शून्य में सब हैं मेरे
प्यारे बे इन्तहा प्यार करने वाले -
मुझसे लड़ने वाले -
मेरा घर परिवार
एक अनोखा संसार
नहीं यहाँ कोई हमारा परिवार
न हमारी कोई सरकार !!








मुझसे अभी दुनिया से क्या लेना देना मेरी अम्मी है न
-मै तो यूं ही झूला झूलता सोता रहूँगा
-अभी तो हाथ भी नहीं फैलाऊंगा
हमारी सरकार पर हमें पूरा भरोसा है
मेरी माँ जब बच्ची थी
वो भी यही कहती थी
मै भी बड़ा हो रहा हूँ
आँख खोलने को मन नहीं करता
कौन कहता है भुखमरी फैलाती है
गोदामों में अन्न जलाती और सड़ाती है
हमारी सरकार….. ???

शुक्ल भ्रमर ५

१७.६.11


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Wednesday, June 15, 2011

बंधुआ हूँ मै -मुक्त कहाँ हूँ -??


बंधुआ  हूँ मै  -मुक्त कहाँ हूँ -??
गर्भ में था तो हाथ बंधे थे
जकड़ा था मै जैसे कैदी !
सीखा वही जो माँ करती थी
खांस खांस जो कुढ़ मरती थी
बर्तन धोना झाड़ू पोंछा
बीस -बीस ईंटो का बोझा
धंसा हुआ मै चार किलो का
पेट में -रोटी का ना टुकड़ा
दर्द टीस का नाच घिनौना
पत्थर पर जो चला हथोडा
कहीं खान में कोयले जैसी
गोरी चमड़ी रंग बदलती
धूप में तपता चाँदी सोना
मोती ढुरता  आँख का कोना !!

कैसा सपना -इच्छा पूरी ??
उमर   भी अपनी सदा अधूरी
अहो भाग्य ! आया जो धरती
सुन्दर कर्म थे माँ की करनी !!

क्या है दूध -व् चाँद खिलौना ?
क्या कपडे - बस नंगे सोना
बाग़ बस-अड्डा रेल स्टेशन
मरू भूमि का सूखा कोना !
नागफनी हैं -कांटे देखा
देख लिया हर जादू टोना !!
दर्जन भर भाई बहना पर
क्रूर निगाहों का उत्पीडन !
चोर सा कोई पुस्तक झाँकू
क-ख-ग सब कृष्ण पहर !!


काली रात का काला साया  
बाप नशेड़ी -जग भरमाया !
दो पैसे के लालच भाई
बंधुआ सब ने मुझे बनाया !!
चौदह में ही चौंसठ जी कर
कभी कमाया कभी खिलाया !
कन्यादान भी करना मुझको
चौरासी मानव तन पाया !!

रब्ब खुदा या मालिक है क्या ??
मालिक मेरा होटल वाला
गैरेज वाला -फैक्ट्री वाला
कहीं भिखारी -पैसे वाला !!
दो रोटी संग चाबुक देकर
खाल उधेड़ सभी करवाता !!

मन करता है आग लगा दूं
धर्म शाश्त्र को धता बता दूं
सब झूठे -कानून-जला दूं
जो अंधे हैं देख न पाते
बंधुआ -बंधन होता क्या है ??

बंधुआ हूँ मै कहाँ नहीं हूँ ???
तलवे उनके चाट रहा हूँ
आगे पीछे नाच रहा हूँ
अब भी मेरे हाथ बंधे हैं
नाग पाश में हम जकड़े हैं !!

मूक -सहूँ मै-भाव नहीं हैं
हड्डी है बस -चाम नहीं है
गूंगे बहरे -वो -भी तो हैं
जिह्वा शब्द है- जान नहीं है
आह चीख- पर -कान नहीं है
जेब ठूंसकर -ले जाते वो
लाज नहीं अभिमान नहीं है
जिनका कुछ सम्मान नहीं है !!

बंधुआ हूँ मै मुक्त कहाँ हूँ ???
गर्भ में थे तो हम जकड़े थे
नाग पाश अब भी जकड़े हैं
चौरासी मानव तन पाया
कठपुतली बन बस रह पाया  
बंधुआ हूँ मै कहाँ नहीं हूँ ??

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
१५.०६.२०११ 


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Monday, June 13, 2011

कुत्ता !! - सांप उन्हें ना काटे




 जब जब कोई नेता या
भूला भटका-अधिकारी आता
गाँव गली की सैर वो करने
शहर कभी जब ऊब भागता
अम्मा अपना लिए पुलिंदा
गठरी लिए पहुँचती धम से
देखो साहब ! अब आये हो
क्या करने ?? जब बुधिया मर गयी !
झुग्गी उसकी जली साल से
भूखे कुढ़ कुढ़ के मरती थी
बच्चे नंगे घूम रहे हैं
खेत पे कब्ज़ा "उसने" की है
पटवारी भी कल आया था
भरी जेब फिर फुर्र हुआ था
पुलिस -सिपाही थाने वाले 
"वहीँ" बैठ पी जाते पानी !!
थोडा खेत बचा भी जिसमे 
मेहनत कर -कर वो मरती थी  
"नील-गाय " ने सब कुछ खाया
मेड काटते --मारे -कोई
काट- काट- चक-रोड मिलाये
सूखे- हरे पेड़- जो कुछ थे
होली- में उसने कटवाये
प्राइमरी का सूखा नल है
बच्चे- प्यासे गाँव  -भटकते
सुन्दर 'सर' जो कल बनवाया 
टूटी सीढ़ी -सभी -धंसा है
रात में बिजली भी ना आती 
साँप लोटते घर आँगन 
अस्पताल की दवा  है  नकली
कोई डाक्टर- नर्स नहीं है
दो दिन -दर्शन कर के जाते -
कुत्ता -  सांप उन्हें ना काटे
कितना - क्या मै गठरी खोलूं ??
 या जी भर बोलो -  मै- रो लूं
अधिकारी बस आँख दिखाता
हाथ जोड़ ले जा फुसलाता 
नेता जी भी उठ- कर - जोरे 
मधुर वचन मुस्काते बोले !
अम्मा !! अब मै यहीं रहूँगा 
इसी क्षेत्र से फिर आऊँगा 
अब की सब मिल अगर जिताए !
कभी  ये फिर दर्द सताए !!
जीतूँगा दिल्ली जाऊँगा
प्रश्न सभी मै वहां उठाऊँ !
अगर पा गया उत्तर सब का
तो फिर प्रश्न रहे कैसे माँ ????
अब जाओ तुम मडई अपनी !
पानी -टंकी-सडक -गली की
चिंता सब हम को है करनी !!
 मुँह बिचका नेता ने देखा
अधिकारी को उल्टा’- ठोंका
इसे रोंक ना सकते - मुरदों
दरी बिछाए”- बैठे -गुरगों
अगली बार जो बुढ़िया आई  
मै तेरी फिर करूँ दवाई !
याद तुझे आएगी नानी
सुबह दिखेगा काला पानी !!!

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
१२.५.२०११ pratapgarh 


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Wednesday, June 1, 2011

आज सूरज बड़ी देर कुछ आंक निकला


आज सूरज बड़ी देर कुछ आंक निकला
picture-of-the-sun-rising_4
सहमा ठगा सा खड़ा झांकता था
आज सूरज बड़ी देर कुछ आंक निकला
कल पुर्जों ने गैस विषैली थी छोड़ी
लाश सडती पड़ी कूड़े कचरों की ढेरी
रक्त जैसे हों गंगा पशु पक्षी न कोई
पेड़ हिलने लगे मस्त झोंके ने आँखें जो खोली
व्योम नीला दिखा शिशु ने रो के बुलाया
आज सूरज बड़ी देर कुछ आंक निकला —
(फोटो गूगल /नेट से साभार )

घबराहट अगर दिल बदल दो अब हैं दुनिया निराली
पाप हर दिन में हो हर समय रात काली
द्रौपदी चीखती -खून बहता -हर तरफ है शिकारी
न्याय सस्ता ,खून बिकता, जेल जाते भिखारी
घर से भागा युवा संग विधवा के फेरे रचाया
आज सूरज बड़ी देर कुछ आंक निकला —
धन हो इज्जत लूटे रखे अब जमीं ना सुरक्षित
खून सर चढ़ के बोले उलटी गोली चले यही माथे पे अंकित
घर जो अपना ही जलता दौड़ लाये क्या मुरख करे रोज संचित
प्यार गरिमा को भूले छू पाए क्या -खुद को -रह जाये ना वंचित
एक अपराधी भागा अस्त्र फेंके यहाँ आज माथा है टेका
आज सूरज बड़ी देर कुछ आंक निकला —
भूल माने जो- पथ शाम फिर लौट आये -न जाए
डाल बाँहों का हार -प्यार देकर चलो साथ स्वागत जताए
चीखती हर दिशा मौन क्यों हम खड़े ? आह सुनकर तो धाएं
भूख से लड़खड़ा पथ भटक जा रहे बाँट टुकड़े चलो साहस बढ़ाएं
स्वच्छ परिवेश रख -फूल मन को समझ
ध्यान इतना कहीं ये न मुरझाये
देख सूरज न कल का कहीं लौट जाए —-
आज सूरज बड़ी देर कुछ आंक निकला
सहमा ठगा सा खड़ा झांकता था
आज सूरज बड़ी देर कुछ आंक निकला
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
२.६.२०११




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं