BHRAMAR KA DARD AUR DARPAN

Tuesday, May 31, 2011

मै आवारा ना प्यारा बदनाम हुआ -


मै आवारा ना प्यारा बदनाम हुआ -
बचपन में कोई नहीं दुलारा !
सींचे बिन कोई शीश उठा मिटटी -ना-
-छाया पायी कोई -आँखें रोई !
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(फोटो साभार गूगल / नेट से )
रूखे दूजे चढ़ हरे हुए- अचरज से देखे
काट लिया उसको भी कोई !
गलियारों में कुत्ते भूंके- बच्चे तो छूने ना देते
-ना-आँख मिलायी !
रहा अकेला- मन में खेला -कुंठा ने दीवार बनायीं
लोग कहें हैं पाप कमाई !!
भूखे को दे –टाला खाना -मन कैसा ?
छीना झपटी- क्यों मारा ?? मै आवारा !!
————————————————-
बद अच्छा बदनाम बुरा -खुद कांटे बोकर -
घाव किया न सूखेगा !
नैनों में ना नीर बचा दिल पत्थर क्या तीर चुभे-
फूल कहाँ से फूटेगा !
बढ़ा दिए मन दूर किये जन -फूलों को अब लगता काँटा
अंग कहाँ बन पायेगा !
लगी आग घर -दूर खड़े हम -प्यास लगे ना पानी देता
ख़ाक हाथ रह जायेगा !
खोद कुआँ मै पानी पीता -रोज किसी को दिया सहारा -
मै आवारा ??? ना प्यारा बदनाम हुआ -
बचपन में कोई नहीं दुलारा !
————————————————-
नासूर बनाये छेड़ छाड़ तो अंग तेरा कट जाएगा
उपचार जरा दे !!
टेढ़ी -मेढ़ी चालें चलता पग लड़ता गिर जायेगा
-तू चाल बदल दे !
भृकुटी ताने आँखें काढ़े -बोझ लिए मन रोयेगा
मुस्कान जरा दे !
अपनों को ही सांप कहे- पागल- तुझको डंस जायेगा
तू ख्याल बदल दे !
आग लगी मन -जल जाता तन-भटका फिरता -
छाँव कहाँ मिल पायेगा -मै आवारा ??
ना प्यारा बदनाम हुआ -
बचपन में कोई नहीं दुलारा !
!
————————————————–
आग लगे सब दूर रहें -परिचय चाहूं ना -
जल तप्त हुए -मै ना झुलसाता !
कीचड जाने दूर रहें -अभिनय -साधू ना-
दलदल में वह ना धंस जाता !
बलिदान चढ़ाता- ऋण भूले ना -
सजा काट कर न्याय बचाता -
पाप किये ना पाँव धुलाता
सीमा रेखा में अपनी -सिद्धांत बनाता -
दो टुकड़ों के खातिर कुछ भी -
साजिश कर -ना -देश लुटाता !
माँ बहनों को “प्यार” किये – “बदनाम” भी होता -
आग नहीं तो राख कहीं लग जाएगी -ये आवारा !
मै आवारा ?? ना प्यारा -बदनाम हुआ -
बचपन में कोई नहीं दुलारा !!!
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
३१.०५.२०११ जल पी. बी .१०.४१ मध्याह्न



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Sunday, May 29, 2011

दुःख ही दुःख का कारण है



दुःख ही दुःख का कारण है
दिल पर एक बोझ है
मन मष्तिष्क पर छाया कोहराम है
आँखों में धुंध है
पाँवो की बेड़ियाँ हैं
हाथों में हथकड़ी है
धीमा जहर है
विषधर एक -ज्वाला है !!
राख है – कहीं कब्रिस्तान है
तो कहीं चिता में जलती
जलाती- जिंदगियों को
काली सी छाया है !!
फिर भी दुनिया में
दुःख के पीछे भागे
न जाने क्यों ये
जग बौराया है !!


यहीं   एक फूल है
खिला हुआ कमल सा – दिल



हँसता -हंसाता है
मन मुक्त- आसमां उड़ता है
पंछी सा – कुहुक कुहुक
कोयल –सा- मोर सा नाचता है
दिन रात भागता है -जागता है
अमृत सा -जा के बरसता है
हरियाली लाता है
बगिया में तरुवर को
ओज तेज दे रहा
फल के रसों से परिपूर्ण
हो लुभाता है !!




गंगा की धारा सा शीतल
हुआ वो मन !
जिधर भी कदम रखे
पाप हर जाता है !!
देखा है गुप्त यहीं
ऐसा भी नजारा है
ठंडी हवाएं है
झरने की धारा है
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जहाँ नदिया है
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भंवर है
पर एक किनारा है
-जहाँ शून्य है
आकाश गंगा है
धूम केतु है
पर चाँद
एक मन भावन
प्यारा सा तारा है !!
शुक्ल भ्रमर ५
29.05.2011 जल पी बी

( सभी फोटो साभार गूगल से)
दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Saturday, May 28, 2011

कितना बदल गया रे गाँव


कितना बदल गया रे गाँव
अब वो मेरा गाँव नहीं है
ना तुलसी ना मंदिर अंगना
खुशियों की बौछार नहीं है
पीपल की वो छाँव नहीं है
गिद्ध बाज रहते थे जिस पर
तरुवर की पहचान नहीं है
कटे वृक्ष कुछ खेती कारण
बँटी है खेती नहीं निवारण
जल के बिन सूखा है सारा
कुआं व् सर वो प्यारा न्यारा
मोट – रहट की याद नहीं है
अब मोटर तो बिजली ना है
गाय बैल अब ना नंदी से
कार व् ट्रैक्टर द्वार खड़े हैं
एक अकेली चाची -ताई
बुढ़िया बूढ़े भार लिए हैं
नौजवान है भागे भागे
लुधिआना -पंजाब बसे हैं
नाते रिश्ते नहीं दीखते
मेले सा परिवार नहीं है
कुछ बच्चे हैं तेज यहाँ जो
ले ठेका -ठेके में जुटते
पञ्च -प्रधान से मिल के भाई
गली बनाते-पम्प लगाते -जेब भरे हैं
नेता संग कुछ तो घूमें
लहर चले जब वोटों की तो
एक “फसल” बस लोग काटते
“पेट” पकड़ मास इगारह घूम रहे
मेड काट -चकरोड काटते
वंजर कब्ज़ा रोज किये हैं
जिसकी लाठी भैंस है उसकी
कुछ वकील-साकार किये हैं
माँ की सुध -जब दर्द सताया
बेटा बड़ा -लौट घर आया
सौ साल की पड़ी निशानी
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(फोटो साभार गूगल से )
कच्चे घर को ठोकर मारी
धूल में अरमा पुरखों के
पक्का घर फिर वहीँ बनाया
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चार दिनों परदेश गया
बच्चे उसके गाँव गाँव कर
पापा को जब मना लिए
कौवों की वे कांव कांव सुनने
लिए सपन कुछ गाँव में लौटे
क्या होता है भाई भाभी
चाचा ने फिर लाठी लेकर
पक्के घर से भगा दिया
होली के वे रंग नहीं थे
घर में पीड़ित लोग खड़े थे
शादी मुंडन भोज नहीं थे
पंगत में ना संग संग बैठे
कोंहड़ा पूड़ी दही को तरसे
ना ब्राह्मन के पूजा पाठ
तम्बू हलवाई भरमार
हॉट डाग चाउमिन देखो
बैल के जैसे मारे धक्के
मन चाहे जो ठूंस के भर लो
भर लो पेट मिला है मौका
उनतीस दिन का व्रत फिर रक्खा
गाँव की चौहद्दी डांका जो
डेव -हारिन माई को फिर
हमने किया प्रणाम
जूते चप्पल नहीं उतारे
बैठे गाड़ी- हाथ जोड़कर
बच्चों के संग संग –भाई- मेरे
रोती – दादी- उनकी -छोड़े
टाटा -बाय -बाय कह
चले शहर फिर दर्शन करने
जहाँ पे घी- रोटी है रक्खी
और आ गया “काल”
ये आँखों की देखी अपनी
हैं अपनी कडवी पहचान !!
कितना बदल गया रे गाँव
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
२८.५.२०११
जल पी बी




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Thursday, May 26, 2011

बलात्कार – रो रो माँ का हाल बुरा था छाती पीट-पीट चिल्लाये


जब जब मै स्कूल चली
तोते सा फिर माँ ने मुझको
रोज सिखाया – रोज पढाया
क्षुद्र जीव हैं इस समाज में
भोली सूरति उनकी
प्यार से कोई पुचकारेंगे
कोई लालच देंगे तुझको
कोई चन्दन कही लगाये
तिलक लगाये भी होंगे
बूढ़ा या फिर जवां कही !
आँखें देख सजग हो जाना
भाषा दृग की समझ अभी !!
मतलब से बस मतलब रखना
अगर जरुरी कुछ – बस कहना !
मौन भला- गूंगी ही रहना !!
बेटी – देखा- ही ना होता !
मन में- काला तम -भी होता !!
“नाग” सा जो “कुंडली” लपेटे
“डंस” जाने को आतुर होता !!
ये सब गढ़ी पुरानी बातें
इस युग में मुझको थी लगती
टूट चुकी हूँ उस दिन से मै
माँ के अपने चरण में गिरती !!
अंकल-दोस्त – बनाती सब को
मेरी सहेली एक विचरती
सदा फूल सी खिलती घूमी
सब से उसने प्यार किया
शाम सवेरे बिन डर भय के
आँखों को दो चार किया !!
प्रेम – प्रेम -में अंतर कितना
घृणा कहाँ से आती !
माँ की अपनी बातें उसको
मै रहती समझाती !!
खिल्ली मेरी उड़ाती रहती
जरा नहीं चिंतन करती
उस दिन गयी प्रशिक्षण को जब
शाम थी फिर गहराई
माँ बाबा मछली सा तडपे
नैन से सारा आंसू सूखा
बात समझ न आई !!
कुछ अपनों को गृह में ला के
रोते घूमे सारी रात !
ना रिश्ते में ना नाते में
खोज खोज वे गए थे हार !!
काला मुह अपना ना होए
कुछ भी समझ न आये !
कभी होश में बकते जाते
बेहोशी भी छाये !!
दिन निकला फिर बात खुल गयी
पुलिस- लोग -सब -आये
ढूंढ ढूंढ फिर “नग्न” खेत में
क्षत – विक्षत -बेटी को पाए
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खून बहा था गला कसा था
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(फोटो साभार गूगल से )
आँखें शर्मसार हो जाएँ !
“कुत्तों” ने था छोड़ा उसको
“कुत्ते” पास में कुछ थे आये !!
रो रो माँ का हाल बुरा था
छाती पीट पीट चिल्लाये
देख देख ये हाल जहाँ का
छाती सब की फट फट जाये
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Cute-Baby-Girl-Weeping
(फोटो साभार गूगल/नेट से )
पल में चूर सपन थे सारे !
पढना लिखना उड़ना जग में
चिड़ियों सा वो मुक्त घूमना
लिए कटोरी दूध बताशा
माँ दौड़ी दौड़ी थक जाये !!
बचपन दृश्य घूम जाता सब
लक्ष्मी –दुर्गा- चंडी -झूंठे
आँखे फटी फटी पत्थर सी
पत्थर की मूरति झूंठलाये !!
कितने पापी लोग धरा पर
जाने क्यों जग जनम लिए
मर जाते वे पैदा होते
माँ उनकी तब ही रो लेती
रोती आज भी होगी वो तो
क्या उनसे सुख पाए ???
उसका भी काला मुँह होगा
जो बेटा वो अधम नीच सा
बलात्कार में पकड़ा जाए !
दोनों माँ ही रोती घूमें
रीति समझ ना आये !!
पकड़ो इनको बाँधो इनको
कोर्ट कचहरी मत भेजो
मुह इनका काला करके सब
मारो पत्थर- गधे चढ़ाये -
जूता चप्पल हार पिन्हाये
मूड मुड़ाये – नोच नोच
कुछ “उस” बच्ची सा लहू निकालो !
लौट के फिर भाई मेरे सब
इनकी नाक वहीँ रगडा दो !!
आधा इनको गाड़ वहीँ पर
उन कुत्तो को वहीँ बुला लो
वे थोडा फिर रक्त चाट लें
इस का रक्त भी इसे पिला दो !!
क्या क्या सपने देख गया मै
दिवा स्वप्न सब सारे
पागल बौराया जालिम मै
ऐसी बातें मत सोचो तुम
जिन्दा जो रहना है तुम को !
दफ़न करो ना कब्र उघारो !!
वही कहानी लिखा पढ़ी फिर
पञ्च बुलाये कफ़न डाल दो
गंगा जमुना ले चल कर फिर
उनको अपनी रीति दिखा दो !!
हिम्मत हो तो कोर्ट कचहरी
अपना मुह काला करवाओ
दौड़ दौड़ जब थक जाओ तो
क्षमा मांग फिर हाथ मिलाओ !!
नहीं तंत्र सब घेरे तुझको
खाना भी ना खाने देगा !
जीना तो है दूर रे भाई
मरने भी ना तुझको देगा !!
कर बलात जो जाये कुछ भी
बलात्कार कहलाये ???
वे मूरख है या पागल हैं
नाली के कीड़े हैं क्या वे ?
मैला ही बस उनको भाए !
नीच अधम या कुत्ते ही हैं
बोटी नोच नोच खुश होयें !!
इनके प्रति भी मानवता
का जो सन्देश पढाये
रहें लचीले ढीले ढाले
कुर्सी पकडे -धर्म गुरु या
अपने कोई -उनको -अब बुलवाओ
वे भी देखें इनका चेहरा
उडती चिड़िया कटा हुआ पर
syedtajuddin__Death of a injured bird
(सभी फोटो गूगल नेट से )
रक्त बहा वो -चीख यहाँ की
तब गूंगे हो जाएँ !!!
शुक्ल भ्रमर ५
२३.०५.२०११ जल पी बी




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Sunday, May 22, 2011

साँस हमारी जहर बनेगी



मुझे खोदकर छोड़ दिए हो
सूखा हूँ मै संकरा इतना
शीतल मन ना- मै संकीर्ण
जरा नहीं -आँखों में पानी
जब खोदे हो उदर भरो तुम



मुझे खिलाओ मिटटी- पत्थर
मुंह मेरा जो खुला रहेगा
पेट हमारा होगा भूखा
सांस हमारी जहर बनेगी
विष ही व्याप्त रहेगा इसमें
काल बनूँगा कुछ खाऊँगा
कोई जानवर सांप कहीं तो
बच्चे भी मै खा जाऊँगा !!
तू भी जो गर मिला मुझे तो
उदर पूर्ति तुझसे कर जाऊं
राक्षस हूँ मै -भूखा दानव
कितना मूर्ख अरे तू मानव ??
चाहे कितने हों संशाधन
पास तुम्हारे तेरी सेना
गाँव गली के सारे जन
देख चुका कितनों को खाया
भूखा फिर भी ना भर पाया !!
कल सोनू स्कूल से लौटा
पांच का सिक्का उदर में मेरे
डाला जो -तो -भूख बढ़ी
लालच मेरी और बढ़ी
सोनू को मै बुला -लिटाया
देर हुआ जब बहना देखी
वो भी मेरे पेट में उतरी
उसका पति भी पीछे उसके
प्रेम बंधे-सब पेट में मेरे !
इतने पर भी पेट भरा ना
मै राक्षस हूँ -काल तुम्हारा
सोनू का भाई बड़ा दुलारा !
दौड़ा आ फिर पेट में उतरा !!
सब बेहोश किये – मै खेला
अट्टहास कर गरजा बोला
खा जाऊँगा जो आएगा
पेट अगर जो नहीं भरेगा
खोद कुआँ यूं ही मत छोड़े
बहरे कान फटे फिर जागे !!
पुलिस लिए सब दौड़े आये
चार -चार को धरा निकाला !
अस्पताल ले जा फिर रोये
सभी मरे सब को मै खाया !!
या पिंजौर देश काल कुछ
कौशल्या तट की हो बस्ती
मै बस देखूं अपना पेट
या मेरा तू पेट भरे – जा
या प्रिय का वलिदान दिए जा !
सूखा देख अगर जो छोड़े
मूरख -पानी -आँखों ले -ले !!
यह रचना एक सत्य घटना पर आधारित है पांच का सिक्का एक अंधे सूखे कुएं में गिर जाने के कारण बालक कुएं में जहरीली गैस का शिकार हुआ तो पीछे पीछे सारा परिवार प्राण की आहुति दे गया -कितने मूर्ख हैं हम इतने बार देख चुके- फिर भी न तो “बोर” को बंद करते हैं न “कुएं” को जब कोई बलि चढ़ जाता है तो बस बैठ के रोते हैं – आइये सब मिल इससे बचें और सब मिल कम से कम इसे घेर कर बच्चों और जानवरों का प्राण बचाएं
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Friday, May 20, 2011

कितने रूप धरे तू नारी



बड़े चैन से सोया था मै
मंदिर सीढ़ी पड़ा कहीं
क्या क्या सपने -खोया था मै
ले भागी स्टेशन जब !!
सीटी एक जोर की सुन के
चीख उठा मै कान फटा
एक भिखारन की गोदी में
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(फोटो साभार गूगल /नेट से लिया गया)
सुन्दर-सजा हुआ लिपटा
देख रहा अद्भुत एक नारी !!
—————————-
बड़ी भीड़ में घूर रही कुछ
तेज निगाहें देख रहा
अरे चोरनी किसका बच्चा
ले आई यों खिला रही
शर्म नहीं ये धंधा करते
खीसें खड़ी निपोर रही
देख रहा शरमाती नारी !!
————————–
फटी हुयी साडी लिपटा के
मुझे लिए डरती भागी वो
खेत बाग़ डेरे में पल के
खच्चर -मै -चढ़ घूम रहा
सूखा रुखा मुर्गा चूहा
पाया जो आनंद लिया !
कान छिदाये माला पहने
नाग लिए मै घूम रहा !
खेल दिखाता करतब कितने
“बहना” भी एक छोटी पायी
भरे कटोरा ले आते हम
ख़ुशी बड़ी अपनी ये माई !
देख रहा क्या लोलुप नारी !!
—————————
उस माई का पता नहीं था
कहीं अभागन जीती जो
या लज्जा से मरी कहीं वो
साँसे गिनती होगी जो
सोच रहा वो कैसी नारी !!!
————————–
अपनी माँ को माँ कहने का
सपना मन में कौंध रहा
उस मंदिर में बना भिखारी
रोज पहुँच मै खड़ा हुआ
जिस सीढ़ी से मुझे उठा के
इस माई ने प्यार दिया
सोच रहा था ये भी नारी !!!
————————–
माई माई मै घिघियाता
कुछ माई ने देखा मुझको
सिक्का एक कटोरे डाले
नजरों जाने क्या भ्रम पाले
कोई प्यार से कोई घृणा से
मुह बिचका जाती कुछ नारी
कितने रूप धरे तू नारी !!!
—————————–
नट-नटिनी के उस कुनबे में
मुझे घूरती सभी निगाहें
कृष्ण पाख का चंदा जैसे
उस माई का “लाल ये” दमके
कोई हरामी या अनाथ ये
बोल -बोल छलनी दिल करते
देख रहा अपमानित चेहरा -तेरा -नारी !!
———————————-
बच्चों की कुछ देख किताबें
हाथ में बस्ता टिफिन टांगते
कितना खुश मै हँस भी पड़ता -
मन में !! -दूर मगर मै रहता
छूत न लग जाये बच्चों को
प्यारे कितने फूल सरीखे !
गंदे ना हो जाएँ छू के !
हँस पड़ता मै -रो भी पड़ता
हाथ की अपनी देख लकीरें
देख रहा किस्मत की रेखा !!!!
———————————-
तभी एक “माई” ने आ के
पूड़ी और अचार दिया
गाल हमारा छू करके कुछ
“चुप” के से कुछ प्यार दिया
गोदी मुझे लगा कर के वो
न्योछावर कर वार दिया !
कुछ गड्डी नोटों की दे के
इस माई से मुझे लिया !!
भौंचक्का सा बना खिलौना
“उस माई ” के संग चला
देख चुका मै कितनी नारी !!!
कितने रूप धरे तू नारी !!
———————————
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
१७.५.२०११ जल पी. बी .१०.४१ मध्याह्न




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Tuesday, May 17, 2011

माँ जैसे थपकी दे जाती



एक नन्हा बालक जो किहाँ किहाँ -उहाँ उहाँ- रो रहा मोती छलकाते माँ की गोदी में चिपका माँ की आँखों में झांकता है और विश्व दर्शन सा कहीं खो जाता है -आइये आज आप सब को उस दुनिया में ले चलें जहाँ से कभी आप भी गुजरे होंगे -आइये याद कर लें वो पल -
अम्मा जब मै तेरी गोदी
रो रो किहाँ -किहाँ करता
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(फोटो साभार गूगल से )
तेरी आँखों में छवि अपनी
देख देख कुछ खो जाता
मायावी आँखों का जादू
सागर की गहराई में !
जल तरंग कुछ जल परियां
आ गोदी भर ले जाती हैं !
लोरी गा गा मैया मुझको
चांदी के पलने में देखो !
घूम नाच कुछ घुंघरू जैसे
पांवों में छनकाती हैं !!
तेरी ऊँगली थिरक थिरक
“माँ”-जैसे -थपकी दे जाती !
कुछ हंसती कुछ लिए कटोरा
सोने के चम्मच से मुख में
मुझको दूध पिलाती हैं !!
तेरा आँचल लहरा कर माँ
ज्यों ही पलकों मेरे पड़ता
ऊँगली पकडे जोर तभी मै
पलक खोल कर चिहुंक उठा !
जाग गया मै देखा मैया
क्या क्या रूप गढ़ा तूने !!
तू देवी है तू सागर है
तू सीपी है तू मोती है
नील गगन तू चंदा तू है
सूरज तू है चाँद सितारा
रजनी दिवस सभी तो तू है !!
तू माया है ममता तू है
राग रागिनी सब माँ तू है
नींद हमारी तू है मैया
पलक हमारी छू ले फिर से
फिर सपनों में खो जाऊं !
दिल में तेरे छुपा रहूँ मै
वहीँ घरौंदा एक बनाऊं !!
तेरी सांस से मेरी साँसे
तेरी धड़कन मेरी माँ !
कितना प्यार करे तू अम्मा
वहीँ देख -मै सो जाऊं !!
किहाँ किहाँ फिर नहीं करूँगा
तुझको नहीं रुलाऊंगा
तू रोएगी जो अम्मा तो
पलक खोल ना पाऊंगा !!
हंस दे तू -फूलों सी अम्मा
खिली रहे शाश्वत इस बगिया !
तुझे निहारूं जब भी मै तो
हो आबाद हमारी दुनिया !!
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(फोटो साभार गूगल से )
तेरे दिल का टुकड़ा हूँ मै
कभी बिछड़ ना जी पाऊँ
इस टुकड़े को जोड़े रखना
कभी जुदा ना करना माँ !!
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
प्रतापगढ़ उ.प्र.
१७.५.२०११



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Sunday, May 15, 2011

माई का जियरा गाइ कहावा


माई का जियरा गाइ कहावा
एक लाडला पुत्र जिसे की अशिक्षित माँ बाप दम भर के भविष्य में उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचाने का ख्वाब संजोते हैं परिस्थितियों की विडंबना ऐसी की पिता के असमय स्वर्गवासी  होने के बाद माँ महगाई से मार खाकर पढ़ाने से जब  इंकार कर देती है तो बच्चे की वेदना फूट पड़ती है और सपने चकनाचूर- पालि के हमका तू मारू मोरी माई- उसके इस कथन से मन द्रवित हो जाता है
---काश कोई उसके अंतर्मन को पहचान

यह हमारी अवधी भाषा का पुट संजोये है -रचना थोड़ी लम्बी भी है -आशा है आप सब इसे समझने की कोशिश करेंगे – 
हमका बनाऊ की बिगाडू मोरी माई
तुहिन कहू बड़े भाग से पाये
सारी उमरिया का फल इहै आये  
नोनवा  अउ रोटिया खियाई  के जिआए
विधि अब एक आस पूरी कराये
हमारे ललन का अफीसर बनाये
बचपन से कहि कहि जियरा बढ़ाऊ
हमका बनाऊ की बिगाडू मोरी माई  

 सारे गौना में शिक्षा मोहाल बा
करज में डूबे सब खेतवउ बिकात बा
लाला अउ मुनीम खाई खाई के मोटात बा
घर अउ दुवरवा कुडूक होई जात बा  
भैया हमरा टाप कई के देखाए
माई बाप  का नमवा जगाये
अब कैसे ई सब भुलानू मोरी माई
हमका बनाऊ की बिगाडू मोरी माई  

सरकार का कोसू स्कूलवा खोलायेसि                                                                             गऊआँ के लड़िकन का नमवा लिखायेसि
 सारी पढ़इया मुफ्त करवायेसि
पंचये में पहिला नंबर लियाए
तोहरे अशवा का ऊँचा बढ़ाये 
तब काहे हमसे रिसानु मोरी माई 
 हमका बनाऊ की बिगाडू मोरी माई  


खरचउ हरदम हम सीमित चलाये
दिहू जौन हमका उहई हम पाए
चाय पान पिक्चर का कबहूँ न धाये
फीसउ आधी हम माफ़ कराये
अठयें तक हरदम वजीफा लियाए
तब काहे दुश्मन बनाऊ मोरी माई
हमका बनाऊ की बिगाडू मोरी माई  

बाबू के रहत तक ख़ुशी से पढाऊ
कबहूँ न कौनउ  कमवा कराऊ  
जातई सारी जिम्मेदरिया डाऊ
सांझ सवेरे तू हरवा जोताऊ 
तब  काहे जुलुमवा  ढाऊ मोरी माई
हमका बनाऊ की बिगाडू मोरी माई  

सारा काज कई के पढ़इआ   चलाये
सोचि भविषवा  हम फूला न समाये
कबहूँ ना सोचे की ई दिन आये
सारी कमइया वृथा होई जाये
महल सपनवा का ऐसें ढही जाये
नंवई से पढ़इआ   छोड़ाऊ मोरी माई
हम का बनाऊ की बिगाडू मोरी माई ---

सारे अरमानवा पे पानी फिराऊ
चढ़ाई सरगवा पे हमका गिराऊ
गंउआ  से हम का आवारा कहाऊ
खुद अपनेऊ पे सब का हंसाऊ
उठे ला करेजवा में हिलोर मोरी माई
हम का बनाऊ की बिगाडू मोरी माई ---

एसी  अच्छा न कबहूँ पढ़उतू
गाइ गुन गान न छतिया फुलउतू
 चाहे हम से तू हरव्इ जोतउतू
आगे क सपना न हमका देखउतू
बिना विचारे जग का हंसाऊ
जल बिनु मीन हमइ तडफाऊ   
पालि के हमका तू मारू मोरी माई

हम का बनाऊ की बिगाडू मोरी माई ---

फिर पहिले का वचन दोहरावा
तम का भगाइ आलोक जगावा
माइ का जियरा गाइ कहावा
कहें भ्रमर अब जियरा बढ़ावा
मंहगाई का न डरवा देखावा 
राखहु मोर दुलार हो माई
हम का  ल्या फिर से उबार मोरी माई
हम का बनाऊ की बिगाडू मोरी माई ---


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Friday, May 13, 2011

नारी अस्तिव-- नारी तेरे बहुत कर्म हैं




प्रिय वियोग में पागल मत बन नारी तेरे बहुत कर्म हैं

(photo with thanks from other sources for a good cause)
जग- जननी ,पालक तो तू ही -जल -फूल खिलाया तूने ही
बन सजनी, श्रष्टा  की तू ही -परिपूर्ण -पकाया तूने ही
बन काली -कलुषित तन जारे -पूजा का अधिकार भी पाया
मंथरा बनी -पूतना बनी -मन मारे -सावित्री सीता नाम लिखाया
पहचानो नारी -पहले खुद को -नारी तेरे कई रूप हैं ----
प्रिय वियोग में पागल मत बन ! नारी तेरे कई रूप है-- -


सुकुमार बनी क्यों -श्रम त्यागा -लक्ष्मण रेखा में रहना चाहा
घूंघट  आड़ खड़ी क्यों - वरमाला -निज वश सब- करना चाहा
संयत ,सुशील , धर धीर चली क्यों -अंकुश टूटा-उच्छृंखल- नर भागा
गंभीर -हीन मन- मार -चली क्यों -अंतर्धारा नर जान पाया
जब चुने रास्ते फूलों के ही -कंटक कीचड तो आयेंगे ही
पहचानो नारी पहले खुद को नारी तेरे कई रूप हैं ----
प्रिय वियोग में पागल मत बन नारी तेरे कई रूप है


जननी,पत्नी, भगिनी, दुहिता, साथी नर माने तुमको ही
शक्ति , भक्ति , ख्याति, शुचिता -नारी- नर पाए तुझसे ही
अपमान जहाँ हो नारी का -सुर ना होंशिव भी शव बन जाता है
पाषाण ह्रदय हो वारि सा -स्पर्श जहाँ हो -पीड़ा भी सुख बन जाता है
जन मानस जब अभिवादन करता नारी -पाले- जा निज-गुण को ..
पहचानो नारी पहले खुद को नारी तेरे कई रूप हैं ----
प्रिय वियोग में पागल मत बन नारी तेरे कई रूप है

नभ , तारे , सूरज ,चाँद व् धरती -प्रेरित करती सब पर बलिहारी
जग आये जीवन -ज्योति अपनी सब अभिनय के अधिकारी
अतिक्रमण करे क्यों अधिकार जताये-प्रिय पीछे मन प्राण गंवाये
प्राण टूटे क्यों -छूटा प्रिय जाये  -मुस्कान लाज ममता जल जाये
विपरीत चले क्यों धारा के तू-भय है अस्तित्व नहीं मिट जाये...
पहचानो नारी पहले खुद को नारी तेरे कई रूप हैं ----
प्रिय वियोग में पागल मत बन नारी तेरे कई रूप है


सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर 
 १३..2011


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं